Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सिंहः इति यथा स्वकारणविशेषाद् भवदपि हि तस्य शौर्य परोपदेशानपेक्षं लोके नैसर्गिक प्रसिद्धं तद्वत्तत्त्वार्थश्रद्धानमपरोपदेशमत्यादिज्ञानाधिगते तत्त्वार्थे भवनिसर्गान विरुध्यते ।
इस सूत्रमें पडे हुए निसर्ग शद्बका अर्थ स्वभाव नहीं है जिससे कि उस स्वभावसे ही उत्पन्न हो रहा सत्ता सम्यग्दर्शन नहीं जाने हुए तत्त्वार्थीको विषय करनेकी अपेक्षासे रसायनके समान वह सम्यग्दर्शन ही न बन सके, अर्थात् रसायनके तत्त्वोंको न समझ करके क्रिया करनेवाले पुरुषके जैसे रसायनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। यहां एक कथानक है कि एक लोभी लक्षपति सेठने अपना सम्पूर्ण रुपयां किसी तापसीकी सेवामें व्यय कर दिया, उसके प्रतिफलमें तापसीसे एक रसायनका गुटका उस सेठको मिला, जिसमें कि अनेक धातु, उपधातुओंके बनानेकी तथा शुद्ध करनेकी क्रियाएं लिखी हुयीं थी । तदनुसार क्रिया करते हुए सेठने तांबेसे सुवर्ण बनाना प्रारम्भ कर दिया, किंतु रसायनकी सिद्धि नहीं हुयी। अतः प्रतारित तिरस्कृत और क्रुद्ध होकर दरिद्र होचुके सेठने तापसीके दिये हुए गुटकेके साथ नीचताका व्यवहार किया। किसी चौराहेके निकट बैठकर पथिकोंसे गाली दिला और थुकवा करके अपनी क्रोध ज्वालाको शांत करता रहा । दैवयोगसे एक दिन वह तापसी भी वहीं आ निकला । वह अपने गुटका और सेठको पहिचान गया और मनमें विचारने लगा कि यह मेरा दिया हुआ ही गुटका है, उस सेठने अन्य जनोंके समान गुटकेका तिरस्कार करनेके लिये तापसीसे भी कहा । तिरस्कारका कारण पूंछनेपर सेठने सर्ववृत्तात कह सुनाया । वह तापसी कुछ औषधियों, फलों, के सहित सेठको भी साथ लेकर तांचा गलानेवाले कसेरेके स्थानपर पहुंचा और सेठसे कहा कि गुटकेके लिखे अनुसार क्रिया करो ! सेठने गुटकेके अनुसार क्रिया की, किंतु जब नींबूको चाकूसे काटकर डालने लगा, इस प्रकरणमें तापसीने सेठको दो थप्पड मारे और कहा कि गुटकेमें नींबूको चाकूसे काटना कहां लिखा है ? लोहेके सम्बन्धसे रसायन क्रिया प्रतिकूल हो जाती है । सेठने हथैलीसे नींबूको निचोड कर तांवमें डाला तो उसी समय दो मन तांबा सोना हो गया। सेठको उसके रुपयोंका सोना देकर अपना अमूल्य गुटका पुनः लौटा लिया और कहा कि-" नो वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष, स तं सदा निन्दति नात्र चित्रम् । यथा किराती करिकुम्भलब्धां मुक्तां परित्यज्य विभर्ति गुजाम् ॥ १॥ जो जिसके गुणको नहीं पहिचानता है, वह उसकी सदा निंदा किया करता है । जैसे कि भीलनी गजमोतियोंको छोडकर गोंगचीके गहनोंको पहनती है। वस्तुतः देखा जावे तो ज्ञानके विना क्रिया करना व्यर्थ है। तैसे ही कारणोंके बिना यों ही स्वभावसे उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनकी भी तत्त्वार्थीको न जाननेवाले जीवोंमें उपपत्ति नहीं हो सकती है । अतः निसर्गका अर्थ स्वभाव नहीं है, किंतु परोपदेशके अतिरिक्त जातिस्मरण, वेदना, विभवप्राप्ति आदिसे उत्पन्न हुआ ज्ञानस्वरूप कारण ही निसर्गका अर्थ है । तिस कारण परोपदेशकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले ज्ञानमें निसर्ग शद्बकी प्रवृत्ति हो रही है यों जैसे कि स्वभावसे ही सिंह शूर वीर होता है । यद्यपि कारणोंके बिना शूर वीरता नहीं होती है, जगत्का कोई भी