Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
दद
इस व्याकरणकी परिभाषाका यही भाव है । अत्यन्त निकट और विपकृष्ट यानी कालदेशका व्यवधान पडे हुए अर्थका प्रकरण उपस्थित होनेपर निकटवर्ती पदार्थमें ही भले प्रकार प्रतीत होगी दूरवर्तीकी नहीं, व्याकरणकी इस परिभाषाका गौण और मुख्य पदार्थका समान प्रकरण होनेपर मुख्य में ही समीचीन ज्ञान किया जायेगा, यों इस परिभाषासे अपवाद ( बाधा ) हो जाता है । सामान्य राजमार्गसे कही गयी उत्सर्ग विधियां अपवाद विषयोंको टालकर प्रवर्तती हैं । पहिले अपवाद विषयोंको स्थान मिलेगा, उसके प्रतिकूल उत्सर्गोको दूर करदिया जाता है, जैसे कि राजमार्ग (सडक)में सम्पूर्ण प्रजाओंको समान रूपसे चलनेका अधिकार है किन्तु विशेष उत्सवके दिन परिकरसहित राजाके गमन करते समय सामन्यजनोंके चलनेका राजमार्गमें अधिकार नहीं है । अर्थात् तत् शब्दके न देनेपर प्रधानरूप मोक्षमार्गका ही सम्बन्ध होजाता । अतः मार्गके साथ अभिमुख सम्बन्ध होजानेका परिहार करनेके लिये सूत्रमें तत् शब्दका प्रयोग करना सार्थक ही है।
ननु च दर्शनवन्मार्गस्यापि पूर्वप्रक्रान्तत्वप्रतीतेः तच्छदस्य च पूर्वपक्रान्तपरामर्शिस्वात् कथं शादन्यायाद्दर्शनस्यैवाभिसम्बन्धो न तु मार्गस्येति चेत् न, अस्मात्सूत्रादर्शनस्य मुख्यतः पूर्वप्रक्रांतत्वात्परामर्शोपपत्तेः मार्गस्य पूर्वप्रक्रांतत्वादुपचारेण तथा भावात् परामशोंघटनात् ।।
पुनः आक्षेपकर्ताका अवधारण है कि तत् शब्दके देनेपर भी मोक्षमार्गका संबन्ध हो जावेगा, कोई रोकनेवाला नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शनके समान मोक्षमार्गको भी पहिले प्रकरणमें प्राप्त होनापन प्रतीत हो रहा है, जबकि तत् शद्वको पहिले प्रकरणमें प्राप्त हुए पदार्थका परामर्शकपना है, ऐसी दशामें मोक्षमार्ग भी पूर्वप्रकरणमें आ चुका है। अतः शब्दशक्तिके अनुसार भी सम्यग्दर्शनका ही उद्देश्य दलकी ओर सम्बन्ध क्यों होगा ? किन्तु मार्गका क्यों नहीं होगा ? ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार कहना तो उचित नहीं है, क्योंकि इस सूत्रसे पूर्व प्रकरणमें प्राप्त होनापन मुख्यरूपसे सम्यग्दर्शनको ही है, अतः तत् शब्द करके दर्शनका परामर्श होना युक्तिसिद्ध होता है । मोक्षमार्ग तो पूर्व प्रकरणमें प्राप्त होरहे सम्यग्दर्शनके भी पूर्वमें है, अतः पितामहमें पितापनके उपचार समान मोक्षमार्गमें पूर्वपनेका इस प्रकार उपचार है । मुख्यरूपसे पूर्ववस्तुके मिलनेपर उपचारके द्वारा कल्पित किये गये पूर्वका यानी पूर्वसे पूर्वका तत् शब्द करके परामर्श होना नहीं घटता है । मोक्षमार्गका ही तत्से आकर्षण होना आचार्य महाराजको यदि इष्ट होता तो तत् शब्दके कहनेकी कोई भी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि प्रधानरूपसे मोक्षमार्गका सम्बन्ध हो ही जाता, ऐसी दशामें तत् शब्द व्यर्थ पडकर आर्षमार्गके अनुसार ज्ञापन करता है कि वह सम्यग्दर्शन ही निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न होता है।
तदिति नपुंसकलिंगस्सैकस्य निर्देशाच न मार्गस्य पुल्लिंगस्य परामर्शो नापि बहूनां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामिति शाब्दान्यायादार्थादिव सदर्शनं तच्छब्देन परामृष्टसुन्नीयते ।