Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
आचार्य महाराज पूंछते हैं कि प्रत्यक्षरूपसे सबको विषय करनेवाले केवलज्ञानको और परोक्षरूपसे सर्व द्रव्य और थोडी पर्यायोंको जाननेवाले श्रुतज्ञानको न लेकर यदि आप लोग नियत -पदाथको विषय करनेवाले यानी थोडे द्रव्य और अल्प पर्यायोंको जाननेवाले मतिज्ञान, अवधिज्ञान, और मन:पर्ययज्ञानको निसर्ग आदि यानी निसर्ग और अधिगम दोनोंसे उत्पन्न होनेका दूसरा पक्ष ग्रहण करेंगे, इस प्रकार दूसरा पक्ष लेना भी उत्तम नहीं है। क्योंकि ये तीनों ज्ञान निसर्गसे ही उत्पन्न होते हैं। अधिगमसे जन्य ज्ञान तो अकेला श्रुतज्ञान ही है । अधिगमसे जन्यपना उन तीनोंमें नहीं सम्भव है। अतः उन तीनोंके भी निसर्ग और अधिगम दोनों हेतुओंसे उत्पन्न होनापन नहीं घटित होता है । यदि सम्यग्ज्ञान भी दोनों कारणोंसे हो जावें इस आग्रहकी रक्षाके लिए आप यों कहेंगे कि कुछ मति, अवधि, मनःपर्यय ये सम्यग्ज्ञान तो निसर्गसे उत्पन्न होते हैं, और श्रुतज्ञान केवलज्ञान रूप दूसरे सम्यग्ज्ञान अधिगमसे उत्पन्न होते हैं इस प्रकार सामान्यपने करके सम्यग्ज्ञानके दोनों प्रकार निसर्ग और अधिगम हेतु घटित हो ही जाते हैं, सो इस प्रकारका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि यों तो सम्यग्दर्शनमें भी तैसा ही व्याख्यान करनेका प्रसंग आवेगा, अर्थात् सम्यग्दर्शन भी कोई तो अकेले निसर्गसे होगा और कोई दूसरा सम्यग्दर्शन अकेले अधिगमसे उत्पन्न होगा, किंतु यह कहना तो युक्तियोंसे रहित है । क्योंकि उस सम्यग्दर्शनकी प्रत्येक व्यक्तिको दोनों ही प्रकारके हेतुओंसे उत्पन्न हो जाना प्रसिद्ध है । जिस प्रकार कि भिन्न भिन्न जीव व्यक्तियोंमें निसर्ग और अधिगम दोनोंसे औपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है तैसे ही व्यक्तिभेद या कालमें क्षयोपशम और क्षायिक सम्यग्दर्शन भी निसर्ग और अधिगम दोनोंसे उत्पन्न होते हुए भले प्रकार प्रतीत हो रहे हैं । पाहिली, दूसरी, तीसरी, पृथिवियोंमें उपदेश और निसर्गसे उपशम तथा क्षयोपशम सम्यक्त्व हो जाते हैं, चौथे, पांचवें आदि नरकमें अकेले निसर्गसे ही उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व होते हैं । तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंमें भी दोनों कारणोंमेंसे चाहे जिससे दो सम्यक्त्व हो जाते हैं । किन्हीं कर्मभूमियां द्रव्यमनुष्यों को केवली श्रुतकेवलीके निकट उपदेशसे और उपदेशके विना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है । इस कारण तीनों ही सम्यग्दर्शन दोनों कारणोंसे उत्पन्न हो सम्यग्ज्ञानमें विशेष व्यक्तिरूपसे नहीं पायी जाती है यानी प्रत्येक ज्ञान दोनों नहीं होता है ।
1
सकते हैं। यह बात
ही कारणोंसे उत्पन्न
चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावान द्विविधहेतुकत्वं सम्भवतीति न त्रयात्मको मार्गः सम्बध्यते, अत्र दर्शनमात्रस्यैव निसर्गाधिगमाद्वोत्पत्त्याभिसम्बन्धघटनात् ।
हां, चारित्र तो फिर अधिगमसे ही जन्य है । निसर्ग ( परोपदेशके विना अन्य कारणसमूह ) से उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञानसे जीव आदि तत्त्वोंका निर्णय कर चारित्रका पालन किया जाता है । यों श्रुतज्ञानपूर्वक ही चारित्र है । उस चारित्रके विशेष कहे गये महाव्रत, परिहार
६४
!