Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
" तन्निसर्गादधिगमाद्वा” इस सूत्रमें निसर्गात् और अधिगमात् इस प्रकार हेतु अर्थमें हो रहे पञ्चमी विभक्तिवाले पदोंका कथन करना तो तत् शब्दके द्वारा अकेले सम्यग्दर्शनको परामर्श करनेवालेपनको ज्ञापन कर रहा है, क्यों कि उस सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें ही उन निसर्ग और आधिगम दोनोंको हेतुपना घटित हो जाता है, ज्ञान और चारित्रकी उत्पत्तिमें यदि उन निसर्ग और अधिगम हेतु माना जावेगा तो सिद्धान्तसे विरोध होगा । जैन सिध्दांतमें प्रत्येक ज्ञानको निसर्ग और अधिगम दोनोंसे उत्पन्न हुआ नहीं माना है, जो ज्ञान निसर्गज है वह अधिगमज नहीं है और जो ज्ञान अधिगमसे जन्य है वह निसर्गसे उत्पन्न हुआ नहीं है । चारित्र तो सबके सब अधिगमसे ही जन्य हैं । किंतु सभ्यग्दर्शनमें यह बात नहीं है, प्रत्येक सम्यग्दर्शन दोनों कारणोंसे पैदा हो जाता है । तथा इस ही कारणसे तत् शब्द के द्वारा मोक्षमार्गका परामर्श करना भी साधक, प्रमाणोंका कथन करना रूप युक्तिसे सिद्ध नहीं हो जाता है, अर्थात् मोक्षमार्गकी भी दोनों कारणोंसे उत्पत्ति माननेमें सिध्दांतसे विरोध है । तत् इस नपुंसक लिंग शब्दका प्रयोग करनेसे पुल्लिंग मार्गका परामर्श हो भी नहीं सकता है, अतः तत् शब्द से अकेले सम्यग्दर्शनका ही ग्रहण होता है।
__सम्यग्ज्ञानं हि निसर्गादेरुत्पद्यमानं निःशेषविषयं नियतविषयं वा ? न तावदादिविकल्पः केवलस्य सकलश्रुतपूर्वकत्वोपदेशानिसर्गजत्वविरोधात् सकलश्रुतज्ञानं निसर्गादुत्पद्यते इत्यप्यसिद्धं, परोपदेशाभावे तस्यानुपपत्तेः।।
आचार्य महाराज पूंछते हैं कि क्यों जी ? सम्यग्ज्ञानको भी यदि आप अवश्य निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न होता हुआ मानेंगे ? तो बताओ ! सम्पूर्ण विषयोंको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानको अथवा नियमित परिमित विषयोंको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानको दोनोंसे उत्पन्न हुआ मानते हो ? कहिये। तिन दोनों विकल्पोंमेंसे पहिले आदिका विकल्प होना तो ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थोको जाननेवाले केवलज्ञानकी उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञानरूप कारणसे होती हुयी मानी है। बारहवें गुणस्थानके आदिमें ही पहिले हीसे उपशम श्रेणी और क्षपकश्रेणीमें पूर्ण द्वादशांगका ज्ञान हो जाता है । उपशम श्रेणीमें शुक्लध्यान है और चतुर्विध शुक्लध्यानके पहिले दो पाये तो पूर्ववित्के होते हैं, किंतु जघन्यरूपसे वहां पञ्चसमिति, तीन गुप्तियोंके प्रतिपादक आठ प्रवचन माताओंका ज्ञान है, दूसरी बात यह है कि किसी किसी निम्रन्थ साधुके बारहवें गुणस्थानमें अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान हैं, किन्तु बारहवेंमें उपयोग श्रुतज्ञानरूप ही है । वास्तवमें श्रुतज्ञान ही पूर्वापर पर्यायोंका पिण्ड होता हुआ ध्यान बन जाता है। केवलज्ञानमें अत्युपयोगी श्रुतज्ञान है । अवधि मनःपर्यय, नहीं है । किसी साधुके तो अवधि मनःपर्यय होते ही नहीं और केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । हां, बारहवें गुणस्थानकी आदिमें पूर्ण श्रुतज्ञान अवश्य है । आर्षशास्त्रोंमें सम्पूर्ण श्रुतज्ञानपूर्वक ही केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेका उपदेश लिखा हुआ है । अतः पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान तो अधिगमजन्य ही हुआ, निसर्गसे उत्पन्न हुआ नहीं है । यो