Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यदि वैशेषिक यों कहें कि कभी ( कार्यके पहिले ) सत्ता रहना और कभी ( कार्यके उत्पन्न (होजानेपर ) असत्ता रहना ये विशेषण तो प्रागभावके उपचार से मानलिये गये हैं, वास्तवमें देखा . जावे तो तुच्छ प्रागभावमें कोई विशेषण नहीं रहता है । ऐसा कहनेपर तब तो हम जैन कहेंगे कि वास्तविक रूपसे प्रागभावमें कभी सत्त्व भी न रहा और कभी असत्त्व भी न रहा, किन्तु वस्तु मानलेनेपर अहेतुक भी प्रागभावके या तो सब कालोंमें सत्त्व रह सकेगा या तुच्छ माननेपर फिर सदा असत्त्व ही रह सकेगा, इन दोनोंकी निवृत्ति करनेके लिये आप वैशेषिकों को भी प्रागभाव के अहेतुक पनेका आग्रह छोड देना चाहिये । और प्रकृतमें यदि सम्यग्दर्शनगुण अहेतुक माना जाता तो आत्मामें नित्य ही उसकी सत्ताका संबन्ध होजानेका प्रसंग होजाता अथवा तुच्छ प्रागभावके समान सम्यग्दर्शनकी सत्ता ही आत्मामें कभी नहीं मिलती। इन दोनों प्रसङ्गोंकी निवृत्तिके लिये सम्यग्दर्शन के अहेतुकपनेका व्यवच्छेद करना ही न्याय्य है । जैसे कि नित्यपना और नित्यहेतुकपना सम्यग्दर्शनमें नहीं है । यहांतक जैसे नित्यपना न होते हुए भी मिथ्यादर्शनके अनादित्वका व्यवच्छेद नहीं होता हैं और नित्यहेतुकपना न होते हुए भी संसारकी सर्वदा उत्पत्तिका व्यवच्छेद होना वहीं देखा जाता है तथा अहेतुकपना होते हुए भी प्रागभावका नित्य सत्त्व नहीं देखा जाता है, यानी अहेतुकत्वके न होनेपर ही आप जैन सम्यग्दर्शनके नित्यसत्त्वका निषेध करते थे सो नहीं है । प्रागभावकी अहेतुक होते हुए भी नित्यसत्ता नहीं देखी जाती है । तैसे ही कारिका द्वारा कहे गये इन तीनों दोषोंका सम्यग्दर्शनमें भी प्रसंग नहीं होपाता है । इस प्रकार इन मिध्यादर्शन, संसार और प्रागभावका दृष्टान्त लेकर सम्यग्दर्शनको भी नित्यपना, नित्यहेतुकपना और अहेतुकपना माननेवाले अन्यमतियोंका निराकरण करके निसर्ग और अधिगमसे कभी कभी सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके सूत्रोक्त सिद्धान्तको पुष्ट कर दिया है।
निसर्गादिति निर्देशो हेतावधिगमादिति ।
तच्छद्वेन परामृष्टं सम्यग्दर्शनमात्रकम् ॥ २ ॥
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सूत्रमें निसर्गात् ऐसा और अधिगमात् ऐसा पञ्चमीविभक्तिके एक वचनका प्रयोग किया है, कारक सूत्रोंके अनुसार यहां हेतुरूप अर्थमें पञ्चमी विभक्ति हुई है । इस कारण तत् शब्द के द्वारा केवल सम्यग्दर्शनका ही परामर्श किया जाता है । भावार्थ — पूर्वमें कहे गये पदार्थका तत् शब्द करके स्मरण और प्रत्यभिज्ञानके लिए उपयोगी परामर्श ( चना ) किया जाता है । यहां मोक्षमार्ग, ज्ञान और चारित्रको छोडकर तत् शब्दने सम्यग्दर्शनका ही संकलन कराया है । क्यों कि निसर्ग और अधिगमरूप दोनों हेतुओंसे उत्पत्ति होना सम्यग्दर्शन में ही घटता है । मोक्षमार्ग आदिमें नहीं । सूत्रेऽस्मिन्निसर्गादिति निर्देशोधिगमादिति च हेतौ भवन् सम्यग्दर्शनमात्रपरामर्शित्वं तच्छब्दस्य ज्ञापयति तदुत्पत्तावेव तयोर्हेतुत्वघटनात्, ज्ञानचारित्रोत्पत्तौ तयोर्हेतुत्वे सिद्धान्तविरोधान्न मार्गपरामर्शित्वमुपपन्नम् ।