Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
केवल वह कार्यरहितपना ही पूरा स्वभाव ( पूरा शरीर ) नहीं है। यदि ऐसा होता तो कार्य रहितपनेके नष्ट हो जानेपर कार्य सहित दशामें द्रव्य भी असत् हो जाता, किन्तु द्रव्य अनादिसे अनन्तकाल तक नित्य गुणोंका पिण्डस्वरूप अक्षुण्णरूप करके बना रहता है । विशेषण या पर्याय ही बदलते रहते हैं, ये सभी द्रव्यके अंश हैं।
तुच्छः प्रागभावो न भावस्वभाव इति चायुक्तं, तस्य कार्योत्पत्तेः पूर्वमेव सत्त्वविगंधान कार्यकाले चाऽसत्त्वायोगात्, सत्त्वासत्वविशेषणयोर्भावाश्रयत्वदर्शनात् । तथा च न पागभावस्तुच्छः सत्त्वासत्त्वविशेषणाश्रयत्वात् द्रव्यादिवत् विपर्ययप्रसंगी वा विशेषाभावात् ।
और भी वैशेषिक कहते हैं कि पर्यायसमुदायरूप या द्रव्यरूप प्रागभाव नहीं है, यहां पर्युदासपक्ष हमको इष्ट नहीं है, किन्तु प्रसज्यपक्षके अनुसार भावोंसे सर्वथा भिन्न माना गया प्रागभाव है, वह भावरूप नहीं है तथा कार्यता, कारणता, आधेयता, आधारता आदि विशेषणोंसे रहित होरहा वह प्रागभाव तुच्छ ( निरुपाख्य ) है, आचार्य कहते हैं कि यह कहना भी युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि ऐसा माननेपर कार्यकी उत्पत्तिसे पहिले ही (भी) उस प्रागभावकी सत्ता माननेका विरोध होगा । और कार्यके विद्यमान रहनेके समयमें प्रागभावकी असत्ता भी न बन सकेगी। क्योंकि कोई वस्तु होवे तो उसकी सत्ता या असत्ता मानी जावे, अश्वके श्रृंङ्ग समान तुच्छ पदार्थमें सत्ता
और असत्तारूप विशेषण नहीं ठहरते हैं । पहिले कालमें सत्ता और कार्यकालमें असत्ता आदि विशेषण तो भावरूप आधारमें रहते हुए देखे जाते हैं । तिस कारणसे हम अनुमान बनाकर सिद्धांत करते हैं कि वैशेषिकोंसे माना गया प्रागभाव ( पक्ष ) तुच्छ पदार्थ नहीं है ( साध्य ) सत्ता और असत्तारूप विशेषणोंका आधार होनेसे ( हेतु ) जैसे कि वैशेषिकोंसे माने गये द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, आदि पदार्थ सत्ता और असत्ताके आश्रय होनेसे तुच्छ नहीं है ( अन्वयदृष्टान्त )। किन्तु वास्तविक अनेक स्वभाववाले भाव हैं । यदि अनेक परमार्थभूत विशेषणोंके आधारभूत पदार्थको भी आप तुच्छ मानोगे तो आप वैशेषिकोंको अपने सिद्धान्तसे विपरीत होरहे मन्तव्यको स्वीकार करनेका यह प्रसंग होगा कि द्रव्य, गुण, कर्म आदि भी ( पक्ष ) तुच्छ पदार्थ हैं ( साध्य ) सत्ता और असत्तारूप विशेषणोंके आधार होनेसे ( हेतु ) जैसे कि प्रागभाव ( दृष्टांत ) छह भाव पदार्थोंमें जैसे अपने धर्मोकी सत्ता और अन्यके धर्मोकी असत्ता रहती है वैसे ही प्रागभावमें भी स्वरूप सत्ता
और अन्यके धर्मोकी असत्ता अथवा पहिले, पीछे, वे दोनों रहती हैं, कोई विशेषता ( अन्तर ) नहीं है । ऐसी दशामें एकको भाव मानना और दूसरेको तुच्छ अभाव मानना पक्षपाती या अन्ध श्रद्वालुओंका कदाग्रह मात्र है। वास्तवमें देखा जावे तो संसारमें कोई तुच्छ पदार्थ ही नहीं है ।
.. कदाचित्सत्त्वमसत्त्वं च विशेषणमुपचारात्प्रागभावस्येति चेत्, तर्हि न तत्त्वतः कदाचित्सत्त्वं पुनरसत्त्वमहेतुकस्यापि भवतीति सर्वदा सत्त्वस्यासत्त्वस्य वा निवृत्तये सद्दर्शनस्याहेतुकत्वं व्यवच्छेत्तव्यमेव नित्यत्वनित्यहेतुकत्ववत् ।