Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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है। गेहूं, जौ, चनामें से कठिनतासे तेल निकलता है । चीकनी मट्टी, भुस से नहीं। हां, मट्टी आदिमें भी अव्यक्त रूपसे तैल विद्यमान रहता है । कहीं तिल आदिमें निमित्त ही नहीं मिलपाते 1 हैं। हां, वालू में से तेल निकलता ही नहीं है ।
यथा किञ्चित्कनकामादि सम्भवत्कनकभावाभिव्यक्तिकमचिरादेव प्रतीयते, अपरं चिरतरेणापि कालेन सम्भवत्कनकभावाभिव्यक्तिकमन्यदसम्भवत्कनकभावाभिव्यक्तिकं, शश्वत्कनकशक्त्यात्मकत्वाविशेषेऽपि सम्भाव्यते, तथा कश्चित् संसारी सम्भवदासन्नमु क्तिरभिव्यक्तसम्यग्दर्शनादिपरिणामः, परोनन्तेनापि कालेन सम्भवदभिव्यक्तसद्दर्शनादिरन्यः शश्वदसम्भवदभिव्यक्त सद्दर्शना दिस्तच्छक्त्यात्मकत्वाविशेषेऽपि सम्भाव्यते ।
जैसे कि किसी कनकपाषाण या रसायनप्रयोग द्वारा सम्पादन किया गया तांबा, सीसा, लोहाका अग्नितेजाव नागफणी आदि पदार्थोंका निमित्तोंके मिलानेपर अल्प ही कालमें निर्दोष सुवर्ण स्वरूपसे प्रगट होना सम्भव होरहा है । और दूसरे सुवर्णकी खानका पाषाण या रसायन बनाने की प्रक्रियामें पडा हुआ तांबा आदि द्रव्य तो विशेष लम्बे काल करके भी सुवर्णरूपसे प्रगट होते हुए सम्भव रहे हैं। तीसरे जातिके अन्य अन्य पाषाण या विशिष्ट तांबा आदिका सुवर्णरूप से प्रगट होना असम्भव ही है । यद्यपि उक्त पाषाण आदि धातुओं में सुवर्णरूपसे परिणमन होनेकी शक्ति तदात्मक होकर विशेषताओंसे रहित यानी एकसी सदा विद्यमान है । फिर भी शीघ्र सोना बन जाना, विलम्बसे सोना बन जाना और कभी भी सोना न बनना इन परिणतियोंसे जैसे शक्तियुक्त द्रव्यके तीन विभाग कर दिये सम्भव जाते हैं । वैसे ही कोई संसारी जीव तो अल्पदिनोंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि गुणों ( परिणामों ) को प्रगट करता हुआ निकट मोक्ष-गामी सम्भव है । और दूसरा दूरभव्य अनन्तकालसे भी सम्यग्दर्शन आदि गुणोंको सम्भवतः प्रगट कर सकेगा । अतः वह दूरभव्य सम्भव रहा है । इनसे भिन्न तीसरा सर्वदा ही सम्यग्दर्शन आदिको प्रगट न कर सकेगा । अतः उसकी मुक्ति होना असम्भव है यह अभव्यजीव है । तीनों ही प्रकार के जीवोंमें भले ही शक्तिरूपसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, की तदात्मकतायें अन्तररहित विद्यमान हैं, फिर भी शीघ्रभव्यता, दूरभव्यता, और अभव्यता, से विभाग करना सम्भावित होरहा है । दूरातिदूर भव्यपना भी इन्हींमें गर्भित होजाता है। भावार्थ - द्रव्यमें गुण नये नहीं गढे जाते हैं । जो ही भव्योंमें गुण हैं वैसे ही अभव्यों में गुण हैं, केवल स्वाभाविक पर्यायोंका होजाना या सम्भावित होना और विभाव पर्यायोंका होना इतना ही भव्य और अभव्यमें अन्तर है । अकेले पञ्चाध्यायीकारके मतानुसार जीवों में भव्यत्व और अभव्यत्व गुणोंके सद्भावसे भी अन्तर है ।
इति नासन्नभव्यदूर भव्याभव्यविभागो विरुध्यते बाधकाभावात् सुखादिवत् । तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनमोहोपशमादौ सत्यन्तरङ्गे हेतौ बहिरंगादपरोपदेशात्तखार्थज्ञानात् परोपदेशापेक्षाच्च प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजमधिगमजं च प्रत्येतव्यम् ।