Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नहीं है । इस प्रकार जीवोंका निकटभव्य, दूरभव्य, दूरातिदूरभव्य आदि और अभव्य ऐसा जातिविभाग करना युक्तियोंसे सहित है । भले ही सम्पूर्ण संसारी जीवोंके द्रव्यरूपसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों तदात्मक शक्तियां विद्यमान हैं तो भी भेद करना आवश्यक है। भावार्थः-इन तीनों शक्तियोंका अभव्योंके सदा ही विभाव परिणाम होता रहता है या यों कहिये कि इन तीनों स्वाभाविक पर्यायोंकी व्यक्ति अभव्यमें नहीं हो पाती है । अभव्योंके केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञानरूप परिणमन करनेकी योग्यताको रखनेवाली चेतना शक्ति विद्यमान है, किन्तु मनः पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका सदा उदय बना रहनेसे वह शक्ति कभी व्यक्त नहीं होने पाती है । कोई मूंग शीघ्र पक जाती है, कोई कुछ देरमें पकती है, तथा किसी सडी गली मूंगको तो पकानेके कारण अग्नि, जल और पात्र ही नहीं मिल पाते हैं । तथा कुडरु जातिकी मूंग तो हजारों मन लक्कड जलानेपर भी नहीं पक सकती है । तीन चार भवोंमें मोक्ष जानेवाला नितान्त आसन्न भव्य है । थोडे भवोंमें मोक्ष जानेवाला निकट भव्य है । अनन्तानन्त कालकी अपेक्षासे अर्धपुद्गलपरिवर्तन उसका अनन्तानन्तवां भाग होनेसे बहुत थोडा काल है । जिस जीवको मोक्ष जानेके लिये इतना काल अवशेष रहा है वह भी निकटभव्य कहा जाता है। पांच परावर्तनोंमें सबसे छोटा द्रव्यपरिवर्तन है । इसके नोकर्म, कर्म ये दो भेद हैं। सबसे छोटा नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन है, इसके आधे कालको अर्थपुद्गलपरिवर्तन कहते हैं। इससे अधिक कालमें या अनेक पुद्गल परिवर्तनोंके पीछे जो मोक्ष जानेवाले हैं वे दूरभव्य हैं । और जिन भव्योंको शक्ति होनेपर भी सम्यग्दर्शनके व्यक्त होनेके लिये कभी कारण ही न मिलेंगे उनको दूरातिदूरभव्य कहते हैं। ऐसे परमाणु अनन्त पडे हुए हैं जो आजतक स्कन्धरूप नहीं हुए और आगे भी न होवेंगे, उनमें जघन्य गुण ही परिणत होते रहते हैं जो कि बन्धके कारण नहीं है । कोई अभव्य जीव हैं जो कि निमित्त मिलनेपर भी दर्शनमोहनीयका उपशम नहीं कर सकते हैं । इस प्रकार संसारी जीवोंकी चार प्रकार की जातियां हैं।
सम्यग्दर्शनशक्तेहि भेदाभावेऽपि देहिनाम् ।।
सम्भवेतरतो भेदस्तद्यक्तेः कनकाश्मवत् ॥ १३ ॥
सम्पूर्ण प्राणियोंके सम्यग्दर्शनरूपी शक्तिका भेद न होनेपर भी व्यक्त होनेकी सम्भावना और सम्यग्दर्शनके नहीं प्रगट होनेकी सम्भावनासे अवश्य भेद है, जैसे कि सुवर्णका पाषाण ( दृष्टान्त ) अर्थात् जिनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र गुण व्यक्त हो जावेंगे, वे भव्य हैं । और जिमके ये गुण कैसे भी प्रगट न होवेंगे, वे अभव्य हैं। तथा जिनको कारण ही न मिलेंगे वे दूरातिदूर भव्य भी अभव्य सारिखे हैं । सुवर्णपाषाणमेंसे अग्नि, तेजाव निमित्त मिलानेपर सौटंच सुवर्ण प्रगट होजाता है और अन्ध पाषाणसे निमित्त मिलानेपर भी सुवर्ण व्यक्त नहीं होता है। यद्यपि सुवर्ण दोनों पाषाणोंमें विद्यमान है । बादाम, पिस्ता, सरसों और तिलोंसे तैल निकल आता