Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कसौली आदि हैं । तथा शुभ मुहूर्त, दीपावलीका दिवस, पुष्य नक्षत्र आदि काल हैं । एवं धनञ्जय सेठके समान ध्यान विशेष करना, नीरोगताकी भावना, मंत्र जपना आदि भाव हैं । तैसे ही दर्शनमोहनीय कर्मकी भी शक्तिको नष्ट करनेवाले प्रतिपक्षी द्रव्य तो जिनेंद्र प्रतिमा, देव ऋद्धि आदि हैं । और समवसरण या तीर्थस्थान एवं पञ्चकल्याणोंके स्थान आदि क्षेत्र हैं । तथा अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल संसारमें अवशेष रहना या तीर्थङ्करोंके पञ्चल्याणकोंकी तिथियां, विशेष पर्वदिन, आदि काल रूप सामग्री है । और प्रायोग्य, अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, आदि भाव हैं । इस प्रकार दर्शनमोहनयिके प्रतिपक्षी द्रव्य आदि पदार्थ निश्चित किये जाते हैं । सम्पूर्ण कर्मोके सम्राट् समझे गये उस मोहनीय कर्मके अभाव होनेपर ही उसके उपशम, क्षयोपशम, और क्षय होनेकी : तिपत्ति हो रही है । दूसरे प्रकारोंसे उन उपशम आदिके होनेका अभाव है।
तत्सम्पत्सम्भवो येषां ते प्रत्यासन्नमुक्तयः । भव्यास्ततः परेषां तु तत्सम्पत्तिर्न जातुचित् ॥ १२ ॥
उस दर्शन मोहके प्रतिपक्षी कहे गये उपशम आदि भावोंकी या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की सम्पत्ति जिन जीवोंके सम्भवती है तिस कारणसे वे जीव निकटभव्य हैं उनकी मोक्ष होना अति निकट है । और उनसे दूसरे अभव्य जीव या दूरातिदूर भव्य जीवोंके तो उस उपशम या द्रव्य आदि सम्पत्तिकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकेगी । अति विलम्बसे मोक्षको प्राप्त करनेवाले जीवोंके भी अधःकरण आदिकी सम्पत्ति बहुत दिनोंके पीछे प्राप्त होगी। सम्पत्तिका अर्थ गुणके साथ प्रेम रखते हुए एक रस हो जाना है । षोडशकारण भावनाओंमें विनयसम्पन्नता दूसरी भावना है । अन्य पन्द्रहोंसे विनय भावनामें यह विशेषता है कि जैसे कृपणधनी अपनी धन सपत्तिको सदा छातीसे लगाये रहता है वैसे ही विनीत पुरुषके मन, वचन, तन आत्मामें विनयगुण सना रहना चाहिये । विनयको अपनी मूलसम्पत्ति समझकर सदा गुरु जनोंके प्रति आदर करे । जैसे ऐंठेल धनाढ्यकी प्रत्येक क्रियामें धनवत्ताकी वास आती है तैसे ही आत्माके प्रत्येक व्यवहारमें विनयकी सुगन्ध बहती रहनी चाहिये । अतः विनयगुणके साथ सम्पन्नता लगाकर दूसरी भावना भावित होती है ।
प्रत्त्यासन्नमुक्तीनामेव भव्यानां दर्शनमोहप्रतिपक्षः सम्पद्यते नान्येषां कदाचित्कारणासन्निधानात्, इति युक्तिनानासन्नभव्यादिविभागः सद्दर्शनादिशक्त्यात्मकत्वेपि सर्वसंसारिणाम् ।
जिन आषाओंको मोक्ष होना अतीव निकट है उन भव्योंके ही दर्शनमोहनीय कर्मके प्रतिपक्ष सामग्रीकी प्राति हो जाती है। अन्य जीवों के किसी कालमें उस सम्पत्तिकी प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि अन्य आत्माओंके कभी भी ऐसे कारण पासमें नहीं आते हैं और कारणके विना कार्य होता