Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थलोकवार्तिके .
___ इस प्रकार युक्ति और दृष्टान्तोंकी सामर्थ्य से जीवोंका निकट भव्य, दूरभव्य और अभव्यरूप करके विभाग करना विरुद्ध नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि इसका कोई बाधक प्रमाण नहीं है, ( हेतु) जैसे-सुख, दुःख, पुण्य, पापकी सत्ता माननेमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है । ( अन्वयदृष्टान्त ) अर्थात् देवदत्तका सुख या दुःख उसको स्वयंसम्वेद्य है, वह मोक्षकी तरह अपने सुख दुःखोंको प्रत्यक्ष द्वारा दूसरे छद्मस्थोंको नहीं जता सकता है, किन्तु बाधक प्रमाणोंके न होनेसे सुख आदिककी सत्ता मानी जाती है । तैसे ही जीवोंमें अतीन्द्रिय भव्यपनेकी व्यवस्था माननी पडती है । उन तीन या चार प्रकारके जीवोंमेंसे पहिले अति निकट सिद्धिवाले भव्यजीवके दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम आदिक अन्तरंग हेतुओंके विद्यमान रहनेपर और परोपदेशको छोडकर शेष ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन, वेदना, आदि बहिरंग कारणोंसे पैदा हुए तत्त्वार्थज्ञानसे उत्पन्न हुआ तत्त्वार्थ-श्रद्धान तो निसर्गज समझ लेना चाहिए । और अन्तरंग कारण माने गये दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय, और क्षयोपशम तथा बहिरंग कारण परोपदेशले बढिया ढंगपर उत्पन्न हो रहे तत्त्वार्थ-श्रद्धानको अधिगमज निर्णीत कर लेना चाहिए । इस प्रकार वर्तमान सूत्रकी तीसरी, चौथी, वार्त्तिकके प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है।
• तृतीयसूत्रका सारांश इस सूत्रके प्रकरणोंका संक्षेप विवरण यह है कि प्रथम ही सम्यग्दर्शनके नित्यपने, नित्यहेतुकपने और अहेतुकपनेका निराकरण किया है । यहां अन्य मतियोंके द्वारा मिथ्यादर्शन, संसार, प्रागभाव, करके दिये गये व्यभिचार विशेषविद्वत्तासे आचार्य महाराजने वारण किया है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये आत्मीयगुणोंकी स्वाभाविक पर्यायें हैं, अतः ये भाव अनित्य हैं । किन्तु इनका परिणामी द्रव्य तो नित्य है । प्रागभावको जैनसिद्धान्तमें निश्चयनयसे अव्यवहित एक पूर्व पर्यायरूप माना गया है और व्यवहारनयसे पूर्ववर्ती अनेक पर्यायरूप स्वीकार किया है । तुच्छ प्रागभावको हमने स्वीकार नहीं किया है। सूत्रमें उत्पद्यते क्रियाको शाद्वबोध करनेके लिये जोड लेना चाहिए । सूत्रके तत्पदसे सम्यग्दर्शनका ही परामर्श हो सकता है। क्योंकि व्यक्तिरूपसे सभी सम्यग्दर्शनोंके निसर्ग और अधिगम दोनों हेतु बन जाते हैं । ज्ञान, चारित्र और मोक्षमार्गके व्यक्तिरूपसे दोनों कारणोंका होना नहीं सम्भवता है । व्याकरण शास्त्रसे भी मोक्षमार्गका परामर्श न कर सम्यग्दर्शनका ही तत् शबसे स्मरण हो सकता है । परोपदेशके विना जिनबिम्ब आदिसे हुए तत्त्वार्थज्ञानको अधिगम निर्णीत किया है। इन दो कारणोंसे दो प्रकारके सम्यग्दर्शन हो जाते हैं । निसर्गका अर्थ स्वभाव नहीं है । सम्यग्दर्शनके पूर्ववर्ती ज्ञानको सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानसे भिन्न सामान्यज्ञान माना गया है। यहां आचार्य महाराजने भारी विद्वत्तासे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी समीचीनताको परिपुष्ट किया है। अन्योन्याश्रय दोषका वारण अतीव प्रशंसनीय है। इसके आगे सभी सम्यग्दर्शनोंके