Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
देना रूप क्षय और छोटे छोटे दोषोंका सद्भाव बना रहता है। अथवा तिसरा अनुमान यह है कि वह दर्शन मोहनीय कर्म पक्ष] कहीं [श्रुतकेवली या केवलीके निकट] कभी [कुछ मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कमती दो कोटि पूर्व वर्षसे अधिक तेतीस सागर तक अविकसे अधिक संसारमें रहना शेष रहनेपर किसी निकट भव्य जीवके क्षयको प्राप्त हो जाता है [साध्यदल] क्योंकि दर्शनमोहनीयकर्मको बंध, उदय सत्त्वरूपसे समूल चूल क्षय करनेवाले प्रतिपक्षी कारण आत्मामें जुट गये हैं [ हेतु ] उसी दृष्टांतके समान अर्थात् जैसे कि आंखोंके तमारा, रतोंध आदि दोषोंको जडमूलसे काटनेवाली औषधिके मिलने पर उन दोषोंका सर्वदाके लिये क्षय हो जाता है । इस प्रकार तीनों अनुमानोंसे उपशम, क्षय, क्षयोपशमोंको कारण सहितपनेका निरूपण कर दिया है। उन्हींके समान तत्त्वार्थश्रद्धान भी अपने कारण माने गये उपशम आदिसे विशेषव्यक्तिके विशेष समयमें कारणोंके अनुरूप उत्पन्न हो जात है । यह समझ लेना चाहिये।
यः कचित्कदाचित् कस्यचिदुपशाम्यति, क्षयोपशममेति, क्षीयते वा, स स्वप्रतिपक्ष प्रकर्षमपेक्षते यथा चक्षुषि तिमिरादिः तथा च दर्शनमोह इति नाहेतुकस्तदुपशमादिः।
जो पदार्थ कहीं कभी किसीके भी उपशान्त होता है या क्षयोपशमको प्राप्त होता है अथव क्षयको प्राप्त हो जाता है । ( व्याप्तिका हेतु ) वह पदार्थ अपने प्रतिपक्ष होरहे पदार्थकी वृद्धिक सहकारीपनेकी अपेक्षासे चाहता है । ( व्याप्तिका साध्य ) । जैसे कि चक्षुमें तमारा, कामल, आदि रोग तभी नाशको प्राप्त होवेंगे, जब कि उन दोषोंके उत्पादक कारणोंका प्रकर्षशक्तिवाला प्रतिपक्ष ( नाशक ) अञ्जन, ममीरा, भीमसेनी कपूर, मोती आदि औषधिओंका समुदाय प्राप्त हो जावेगा ( अन्वय दृष्टांत ) । और तैसा ही तिमिर आदिके समान उपशम आदिको प्राप्त होनेवाला दर्शनमो हनीय कर्म है । ( उपनय ) अतः अपने प्रतिपक्षीका अपेक्षक है । ( निगमन ) इस प्रकार उर कर्मके उपशम आदि होना अहेतुक नहीं हैं, यानी हेतुओंसे कर्मोके उपशम, क्षय, और क्षयोपशग होते हैं । तब तो सम्यग्दर्शन भी कारणसहित ठहरा।
प्रतिपक्षविशेषोऽपि दृमोहस्यास्ति कश्चन ।
जीवव्यामोहहेतुत्वादुन्मत्तकरसादिवत् ॥ १० ॥
मोहनीय कर्मके प्रतिपक्ष पडनेवाले विपक्षीको अनुमानसे सिद्ध करते हैं कि दर्शनमोहनी। कर्मका कोई न कोई विशेष प्रतिपक्षी भी है (प्रतिज्ञावाक्य ) । जीवके स्वाभाविक गुणोंको विशेषरू। करके मोहित करनेका कारण होनेसे ( हेतु ); जैसे कि उन्मत्त करनेवाले मद्य, भंग, धतूरा, आदिवं रसका तथा अहिफेन, गांजा, आदि उन्मत्त बनानेवाले पदार्थोकी शक्तिका ध्वंस करनेवाले प्रतिपक्ष शीतजल, दधि, खटाई, हींगडा आदि पदार्थ हैं ( अन्वय दृष्टान्त )। 11