Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नहीं हैं, किन्तु हेतुओंसे सहित हैं । दर्शनमोहनीयकर्मके नाश करनेवाले काललब्धि, ध्यान, अधःकरण, आदि विशेष प्रतिपक्षिओं ( शत्रुओं ) के विना उपशम आदि कभी नहीं उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-विशेष व्यक्तिके विशेष समयमें कर्मोके प्रतिपक्षी कारणोंके मिलनेपर ही उपशम, क्षय और क्षयोपशम होते हैं । अतः सम्यग्दर्शनकी सर्वदा उत्पत्ति और सर्वदा अनुत्पत्तिका प्रसंग नहीं आता है।
कथं प्रतिपक्षविशेषाद्दर्शनमोहस्योपशमादिरित्युच्यते। . .
कर्मोके शत्रुरूप विशेष प्रतिपक्षियोंसे दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षयोपशम और क्षय कैसे हो जाते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज कहते हैं
दृग्मोहस्तु क्वचिज्जातु कस्यचिन्नुः प्रशाम्यति । प्रतिपक्ष्यविशेषस्य सम्पत्तेस्तिमिरादिवत् ॥ ८॥ क्षयोपशममायाति क्षयं वा तत एव सः ।। तद्वदेवेति तत्त्वार्थश्रद्धानं स्यात्स्वहेतुतः ॥ ९ ॥
यहां तीन अनुमान बनाये जाते हैं कि किसी स्थानपर किसी समय योग्यता मिलनेपर किसी आत्माके दर्शनमोहनीय कर्मका प्रशस्त उपशम हो जाता है । अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टिके अन. न्तानुबन्धी चार और मिथ्यात्व इन पांच प्रकृतियोंका तथा किसी सादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व सहित उक्त सात प्रकृतियोंका उपशम हो जाता है। पहिले, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें गुणस्थानमें सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृतिका संक्रमण हो जानेपर अथवा तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानोंमें फल देकर या कहीं भी नहीं फल देकर दोनोंकी स्थितिबन्धके पूर्ण हो जानेपर सादि मिथ्यादृष्टिके भी पांच प्रकृतियोंका उपशम होता है [ प्रतिज्ञा ] क्योंकि उस मोहनीय कर्मके नाश [ उपशम ] करनेवाले विशेष प्रतिपक्षियोंकी आत्मामें तदात्मक रूपसे प्राप्ति होगयी है [ हेतु ] जैसे कि आंखोंमें लगे हुए तमारा, फुली, मोतियाबिन्दु, जाला आदि दूषित पदार्थोका अञ्जन आदि प्रतिपक्षी औषधियोंसे कुछ दिनोंतकके लिए उपशम हो जाता है । दूसरा अनुमान यह है कि वह दर्शनमोहनीय कर्म [ पक्ष ] कहीं कभी किसी जीवके क्षयोपशम अवस्था को प्राप्त हो जाता है, यानी छह प्रकृतियोंके सर्वघातिस्पर्धकोंका उदयाभावरूप क्षय तथा उदीरणाको रोक रहा इनही प्रकृतियोंका सदवस्थारूप उपशम और देशघाती सम्यक्त्व कर्मका उदय बना रहता है (साध्य ) क्योंकि तैसा ही कारण होनेसे अर्थात् कर्मबन्धके प्रतिपक्षी और स्वाभाविक गुणके प्रापक काललब्धि, जिनबिम्ब दर्शन आदि विशेष हेतुओंकी सम्प्राप्ति हो रही है [ वही हेतु ] दृष्टान्त भी वही है । अर्थात् जैसे नेत्रमें उपयोगी हो रही औषधके सेवनसे कुछ देरके लिए प्रकृष्ट दोषोंका फल न