Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तिस कारण से सिद्ध होता है कि विपरीत अर्थका ग्रहण कर श्रद्धान करनारूप मिथ्यात्वका क्षय मात्र स्वभावसे ही होनेवाला नहीं है । स्याद्वादियोंके समान अन्य नैयायिक मीमांसक आदि वादियोंने भी तैसा स्वीकार नहीं किया है । अर्थात् मिथ्याज्ञानरूप शनिग्रहको क्षय करनेवाला सम्यग्ज्ञानका अविनाभावी सम्यग्दर्शन अपने कारणोंसे ही विशिष्ट समयमें उत्पन्न होता है । कारणोंके विना स्वभावसे ही चाहे जब वह उत्पन्न नहीं हो जाता है ।
पापापायाद्भवत्येष विपरीतग्रहक्षयः ।
पुंसो धर्मविशेषाद्वेत्यन्ये संप्रतिपेदिरें ॥ ७ ॥
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अतत्त्वोंको तत्त्वरूपसे ग्रहण करनरूप विपर्यय ज्ञानका यह क्षय ( उदेश्यदल ) पाप कर्मो के नासे होता है ( विधेय ) । अथवा आत्माके विशेष पुण्य कर्मोंसे उत्पन्न हुए विशिष्ट धर्मोसे मिथ्याज्ञानका क्षय होता है । इस प्रकार अन्य नैयायिक, मीमांसक, आदि प्रतिवादी लोग भी भले प्रकार ज्ञात कर चुके हैं । भावार्थ : — मिथ्याग्रहणके क्षयकी कारणोंसे उत्पत्ति होना सभी दार्शनिकों स्वीकार की है । वह स्वाभाविक नहीं है । अन्यथा सभी जीवोंके पाया जाता । तीव्र पिशाचको दूर करनेके लिये सामग्री एकत्रित काम नहीं चलता है । सूत्रमें कहे गये निसर्गपदका अर्थ भी हैं। कोरा स्वभाव नहीं मान बैठना ।
सर्वदा उसका मित्र सम्यग्ज्ञान करनी पडती है। कोरे ढोंगसे उपदेशके अतिरिक्त होरहे शेष कारण
ननु च यदि दर्शनमोहस्योपशमादिस्तत्त्वश्रद्धानस्य कारणं तदा स सर्वस्य सर्वदा तज्जनयेत् आत्मनि तस्याहेतुकत्वेन सर्वदा सद्भावात्, अन्यथा कदाचित्कस्यचिन्न जनयेत् सर्वदाप्यसत्त्वात् विशेषाभावादिति चेन्न, तस्य सहेतुकत्वात्प्रतिपक्षविशेषमन्तरेणाभावात् ।
यहां किसीकी दूसरी शंका है कि दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिको आप जैन लोग यदि तत्त्वश्रद्धानके कारण मानेंगे, तब तो वे उपशम आदि कारण सभी जीवों के सम्पूर्ण कालों में उस सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करा देवें । क्योंकि वह मोहनीय कर्मका उपशम आदि होना अपनी उत्पत्ति में किसी हेतुकी अपेक्षा नहीं रखता है । अतः वह आत्मामें सर्वदा विद्यमान है ही । अन्यथा यानी उपशन आदिको आत्मामें सर्वदा विद्यमान नहीं कहकर अन्य प्रकारसे मानोगे तो किसी भी समय किसी जीवके वे उपशम आदि सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करा सकेंगे, कारण कि उपराम आदिक सदा भी आत्मामें हैं ही नहीं । उपशम आदि न होनेकी अपेक्षासे कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् किसी समय में किसी आत्माके उपशम आदिकका न होना तो सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करादे और अन्य समयमें अन्य किसी आत्माके उपशम आदिका न होना सम्यग्दर्शनको उत्पन्न न करा सके, इस व्यवस्थाका नियामक कोई विशेष हेतु आप जैनोंके पास नहीं है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकारकी शंका तो ठीक नहीं है। क्योंकि वे उपशम, क्षय, क्षयोपशम तो अहेतुक