Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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निक्षेपसे वह अन्तिम मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान ही है । किंतु वास्तविकरूपसे तो सम्यग्दर्शन के समय में ही मतिज्ञान उत्पन्न होता है । पहिले समयोंमें मिथ्यात्व कर्मका उदय होनेसे वे ज्ञान मिथ्या सहचरित हैं । तर्हि-मिथ्याज्ञानाधिगतेऽर्थे दर्शनं मिथ्याप्रसक्तमिति चेन्न, ज्ञानस्यापि मिथ्यात्वप्रसंगात्, सत्यज्ञानस्यापूर्वार्थत्वान्न मिथ्याज्ञानाधिगतेऽर्थे प्रवृत्तिरिति चेन्न, सर्वेषां सत्यज्ञानसन्तानस्यानादित्वप्रसंगात् ।
तब तो मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थ में प्रवृत्त हुए सम्यग्दर्शनको भी मिध्यापनेका प्रसंग होगा, इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि यों तो मिथ्याज्ञानके पीछे होने वाले समीचीन ज्ञानको भी मिथ्यापनेका प्रसंग हो जावेगा अर्थात् सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पहिले मिथ्याज्ञान था, उस मिथ्याज्ञानके उत्तर कालमें ही सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होगया है । अतः मिथ्याज्ञानके पीछे होने वाले दर्शनको जिस प्रकार मिध्यापनेका आप प्रसङ्ग देते हैं वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीवकें पूर्ववर्ती मिथ्याज्ञानसे पीछे होनेवाले उपादेयरूप सम्यग्ज्ञानको भी सुलभतासे मिथ्यापनका प्रसंग हो जावेगा । यदि आप यों कहें कि प्रमाणस्वरूप सत्यज्ञान गृहीतग्राही नहीं है जिससे कि वह मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थमें प्रवृत्ति करें, किन्तु सत्यज्ञान तो नवीन नवीन अपूर्व अर्थोको ग्रहण करता है इस कारण मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थोंमें सम्यग्ज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं होती है । वह तो अपनेको और अर्थको जाननेवाला एक नवीन प्रमाणज्ञान है, सो यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि सभी प्राचीन सम्यग्दृष्टि और नवीन सम्यग्दृष्टियोंके सम्यग्ज्ञानकी सन्तानको अनादिपनेका प्रसंग होजावेगा । अर्थात् मिथ्याज्ञानसे जानेहुए अर्थमें अपूर्व अर्थको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानकी प्रवृत्ति होना आप मानते नहीं है। तब तो परिशेषसे निकल आया कि वह सम्यग्ज्ञान अपने पूर्ववर्ती सत्यज्ञान से उत्पन्न हुआ है और वह सत्यज्ञान भी उससे पहिलेके सत्यज्ञानसे उत्पन्न हुआ होगा, इस प्रकार सत्यज्ञान अनादिका ठहर जावेगा तभी मिथ्याज्ञानका सम्बन्ध छूट सकेगा, किन्तु सम्यग्ज्ञानकी अनादि से सन्तान चले आना किसीको इष्ट नहीं है ।
सत्यज्ञानात्प्राक् तदर्थे मिथ्याज्ञानवत्सत्यज्ञानस्याप्यभावान्न तस्यानादित्वप्रसक्तिरिति चेन्न, सर्वज्ञानशून्यस्य प्रमातुरनात्मत्वप्रसंगात्, न चानात्मा प्रमाता युक्तोऽतिप्रसङ्गात् ।
यदि फिर कोई यों कहे कि सम्यग्दर्शनके समान कालमें हुए सम्यग्ज्ञानसे पहिले उस सम्यज्ञानके विषयमें मिथ्याज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं थी और उसी प्रवृत्तिके समान सत्यज्ञानकी भी प्रवृत्ति नहीं थी अर्थात् सम्यग्ज्ञानके पहिले उस विषय में जीवको न मिथ्याज्ञान था और न सम्यग्ज्ञान ही था, इस कारण उस सम्यग्ज्ञानके अनादिपनेका प्रसंग नहीं आता है। आचार्य समझाते हैं कि सो यह कहना तो ठीक नहीं है, क्यों कि सभी मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानोंसे रहित मानलिए गये समीचीन ज्ञाता आत्माको अनात्मा (जड ) पनेका प्रसंग हो जावेगा और ज्ञानोंसे रहित हो रहे जरूप पदार्थको प्रमातापना युक्त नहीं है। क्यों कि या तो जडरूपसे इष्ट किये गये घट, पट, आदिको