Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
ह्रास होजाता है । यदि कदलीघातके कारण न मिलते तो वे कर्मभूमिके मनुष्य और तिर्यञ्च अधिक काल तक अवश्य जीवित रहते । जो भवितव्य है, वह अवश्य ही होवेगा। इसका तात्पर्य यही है कि कारणोंके मिलनेपर ही वह कार्य हो सकेगा, यदि ऐसा नहीं माना जावेगा तो पुरुषार्थ करना व्यर्थ पडता है । व्यापार, अध्ययन, विवाह आदि कारणोंके मिलाये विना धनप्राप्ति, विद्वत्ता, सन्तति आदि कार्य नहीं हो सकते हैं । हां, कभी तीव्र कर्मका उदय होजानेपर पुरुषार्थ व्यर्थ होजाता है। प्लेग, सन्निपात रोगोंसे सताये गये भी औषधिओंके विना ही कोई जीव चंगे होजाते हैं, किन्तु यह राजमार्ग नहीं है । एक मनुष्यका सन्निपात रोग दही खानेसे दूर होगया, इतनेसे ही वह दही खाना सन्निपातकी चिकित्सा नहीं । वास्तवमें कारणोंके मिलनेपर ही कार्य हुआ है, स्वयं अपने ओप नहीं। केवल दैववादका पक्ष लेकर पुरुषार्थको न करनेवाले जीव आलसी और एकान्ती हैं । मोक्ष अपने समयमें होती है, इसका अभिप्राय भी यही है कि अतान्द्रियदर्शीने परोक्ष मोक्षका जिस नियत कालमें होना बताया है, उसको मोक्षके पूर्ववर्ती कारण माने गये मनुष्यपर्याय, दीक्षा लेना, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षपकश्रेणी, चारों शुक्लप्यानरूप सामग्रीका होना भी अत्यावश्यक प्रतीक होकर दीख गया है, अतः मोक्षका दृष्टान्त लेकर सभी सम्यग्दर्शनोंको अपने कालमें स्वयं उत्पत्ति होनेसे स्वाभाविकपना सिद्ध करना ठीक नहीं है । जो कार्य अपने कारणोंके मिलनेपर नियत समयमें होगा वही उसका काल है, फिर अपने कालमें अपने आप होगा इस निःसार बातमें क्या तत्त्व निकला ! कुछ भी नहीं । जैसे कि कोई ईश्वरवादी कह देते हैं कि एक एक दानेमें छाप लग रही है, जो दाना जिस प्राणीका है उसीको मिलेगा। क्योंजी इसमें छाप मोहर, लगानेकी क्या बात है ! हम कहते हैं कि बैल गाडी या मोटर गाडीकी उडती हुई धूल या हवा, या जलकण मेघ विन्दुऐं जिसके अंग पर लगती है, सबपर छाप लगी कहो । बात यह है कि देश, काल अनुसार वह वस्तु प्राप्त हो जाती है। सामग्री बदलनेपर परिवर्तन भी हो सकता है, एकान्त करना ठीक नहीं है, प्रकरणमें यह कहना है कि किसी भी प्रकारसे ज्ञान सामान्यके द्वारा भी अर्थको न जाना जावेगा तो ऐसे अर्थमें श्रद्धान होना कैसे भी नहीं बन सकता है।
वेदार्थे शूद्रवत्तत्स्यादिति चेत्र, भारतादिश्रवणाषिगते शूद्रस्य तस्मिन्नेव श्रद्धान दर्शनात्, च प्रत्यक्षतः स्वयमधिगते मणौ प्रभावादिना सम्भवानुमानाविणीते कस्यचिद्भक्तिसम्भवादन्यथा तदयोगात् ।
कोई यदि यों कहे कि वेदके अर्थमें विना जाने हुए भी जैसे शूद्रको श्रद्धान हो जाता है अर्थात् “ स्त्रीशूद्रौ नाधीयेताम् " इस श्रुतिके अनुसार स्त्री और शूद्रको वेदके अध्ययन करनेका अधिकार नहीं है । फिर भी वेदमें विहित किये गये यज्ञ, आत्मविज्ञान, आदिक अर्थोंमें शूद्रको गाढ श्रद्धान देखा जाता है । इसीके समान ज्ञानके द्वारा नहीं जाने हुए अर्थमें भी सम्यग्दृष्टिको श्रद्धान हो सकता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है। क्योंक वेदव्यासके बनाये हुए