Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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करनेकी योग्यतावाला तत्त्वार्थज्ञान भी सम्यग्दर्शनसे पहिले अपने अपेक्षणीय क्षयोपशम आदि कारणोंसे उत्पन्न हो चुका है । अर्थात् सम्यक्पने और मिथ्यापनेसे नहीं निर्णीत किये गये पूर्व समयवर्ती तत्त्वार्थज्ञानसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार माननेपर अन्योन्याश्रय दोष नहीं होता है, ऐसा दूसरे विद्वान् कह रहे हैं। इस कथनमें सभी कुचोंधोंका होना नहीं सम्भवता है । अर्थात् कोई भी शंका खडी नहीं रहती है । आगमसे भी कोई विरोध नहीं आता है । इनका अभिप्राय है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिमें निमित्त कारण पूर्व समयवर्ती ज्ञान है और उस ज्ञानका निमित्त कारण क्षयोपशम है। इसमें अन्योन्याश्रय दोष नहीं है । श्रीविद्यानन्द स्वामीको भी यह समाधान इष्ट है ।
सर्व सम्यग्दर्शन स्वाभाविकमेव स्वकाले स्वयमुत्पत्तेनिःश्रेयवदिति चेन्न, हेतोरसिद्धत्वात्, सर्वथा ज्ञानमात्रेणाप्यनधिगतेऽर्थे श्रद्धानस्याप्रसिद्धः।
यहांतक सभी सम्यग्दर्शनोंको अधिगमजन्य माननेवालोंके एकान्तका निरास कर दिया है । अब सभी सम्यग्दर्शनोंको स्वाभाविक माननेवाले निरासार्थ प्रयत्न करते हैं । पूर्वपक्षीका कहना है कि सर्व ही सम्यग्दर्शन निसर्ग यानी स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि जो जिसका योग्य काल है, 'वह अपने समयमें अपने आप उत्पन्न हो जाता है जैसे कि मोक्ष । अर्थात् दस जन्म पीछे होनेवाली मोक्ष प्रयत्न करनेपर भी दो या चार जन्म पीछे नहीं हो सकती है अथवा उपेक्षा करनेसे पचास जन्म पीछे होनेके लिये नहीं हट सकती है । नियत समयमें ही मोक्षका होना अनिवार्य है । जो होनहार है सो होता ही है । कारणोंके मिलानेसे क्या लाभ है ? योग्य कालमें वनस्पतियां फलती, फूलती हैं । तैसे ही अपने नियत कालमें सम्यग्दर्शन भी स्वभावसे उत्पन्न होजाता है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वपक्षीके द्वारा दिया गया स्वयं उत्पत्तिरूप हेतु किसी अधिगमजन्य होरहे सम्यग्दर्शनमें न रहनेके कारण भागासिद्ध हेत्वाभास है अथवा सभी प्रकारोंसे सामान्य ज्ञानके द्वारा भी नहीं जाने हुए अर्थमें श्रद्धान होना प्रसिद्ध नहीं है। अर्थात् परोपदेशसे या स्वयं जान लिये गये अर्थमें श्रद्धान होना बन सकता है। अतः कारणोंकी अपेक्षासे होनेवाले सम्यग्दर्शनके दो भेद कर दिये गये हैं । उन दोनों सम्यग्दर्शनरूप पक्षमें नहीं रहता है, अतः हेतु स्वरूपासिद्ध है । अपने कालमें भी विना कारकोंके कोई कार्य नहीं होजाता है । हां, अन्य कारणोंके समान काल भी एक कारण है। अकेला काल ही किसी कार्यका पूर्णरूपसे कारण नहीं है । अपने कालमें कार्य होते हैं, इसका अर्थ यही है कि सामग्री मिलने पर अपने कालमें कार्य होते हैं । यदि सामग्री न मिले तो कोरा काल क्या कर सकता है ? । कर्मोका उदयकाल आनेपर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न होनेसे कर्मोका फल नहीं होने पाता है । नारकियोंके अनेक पुण्य प्रकृतियोंका अपने उचित कालमें उदय आता है। किन्तु क्षेत्रसामग्री न होनेसे विना फल दिये हुए वे प्रकृतियां झड जाती हैं । पूरी आयुःको रखनेवाले जीवोंके अपवर्तनका कारण माने गये शस्त्रघात, विषभक्षण, ग्रन्थिक सन्निपात ( प्लेग ), विशूचिका ( हैजा ), आदिके मिल जानेपर मध्यमें ही आयुः कर्मका