Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
वादल देखे थे तब कुछ नहीं हुआ था। और अनेक रागी जीव बादलोंसे श्रृंगार रसको उत्पन्न कर लेते हैं, अतः सिद्ध होता है कि न जाने कब किस निमित्तसे कौनसा नैमित्तिक उत्पन्न हो जावे, छात्रोंको पढानेमें भी गुरुका प्रयत्न अधिक प्रेरक नहीं है । विद्यार्थियोंका क्षयोपशम ही प्रधान कारण है, अन्यथा एक गुरुके पढाये वीस छात्रोंमें व्युत्पत्तिका इतना बडा अन्तर न देखा जाता, किन्तु गुरुकी अध्यापनदक्षता भी यों ही उपेक्षणीय नहीं है । अन्यथा विद्यार्थियोंके कृतघ्नता दोष का प्रसंग होगा । रत्नभण्डार ( खजाना ) की तालीको गुरुसे लेकर उनके उपकारोंको भूल जाना नीचता है । प्रकृतमें हमको यह विचारना है कि सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करानेवाले उपदेशका प्रवर्तक वक्ता स्वयंबुद्ध है । हाँ ! प्रतिपादन करने योग्य शिष्यके ही तत्त्वार्थज्ञानको परोपदेशकी अपेक्षा होना सम्भव है । अतः उन कोई एक विद्वानोंके द्वारा अन्योन्याश्रय दोषका वारण करना युक्तियोंसे नहीं हो सका । अब कोई अन्य पंडित समाधान करना चाहते हैं कि
___ यदैव प्रतिपाद्यस्य परोपदेशात्तत्वार्थज्ञानं तदैव सम्यग्दर्शनं तयोः सहचारित्वात् ततो नेतरेतराश्रय इत्यन्ये तेऽपि न प्रकृतज्ञाः। सद्दर्शनजनकस्य परोपदेशापेक्षत्वात् तत्त्वार्थ- . ज्ञानस्य प्रकृतत्वात् तस्य तत्सहचारित्वाभावात् सहचारिणस्तदजनकत्वात् ।
जिस समय ही शिष्यको परोपदेशसे तत्त्वार्थीका ज्ञान हुआ है उसी समय सम्यग्दर्शन उत्पन्न - होगया है। क्यों कि वे दोनों ही तत्त्वार्थ-ज्ञान और सम्यग्दर्शन साथ साथ रहने वाले हैं, तिस कारण अन्योन्याश्रय दोष नहीं होता है । भावार्थः-जैसे बैलके सीधे और डेरे सींग साथ उत्पन्न होते हैं इनमें एक दूसरेका आश्रय लेना नहीं है, तैसे ही समानकाल में होनेवाले तत्त्वार्थ-ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें भी परम्पराश्रय नहीं है, अपने अपने उपादान कारणोंसे वे उत्पन्न हो जाते हैं, इस प्रकार अन्य कोई विद्वान् समाधान करते हैं । वे भी प्रकरणमें प्राप्त हो रहे विषयको समझनेवाले नहीं हैं। क्योंकि परोपदेशकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ सम्यक्दर्शनका जनक ऐसा तत्त्वार्थ-ज्ञान यहां प्रकरणमें प्राप्त है। वह ज्ञान सम्यग्दर्शनका सहचारी नहीं है। हां जो ज्ञान सम्यग्दर्शनका सहचारी है वह उस सम्यग्दर्शनका जनक नहीं है । भावार्थ:-शिष्यके सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके प्रथम जो तत्त्वार्थज्ञान परोपदेशसे उत्पन्न हुआ है, वह तत्त्वार्थ-ज्ञान सम्यग्दर्शनसे पूर्व समयमें रहता है । तभी सम्यग्दर्शनका कारण हो सकता है। कार्यसे पूर्व समयमें कारण रहना चाहिये । अतः इस ढंगसे भी अन्योन्याश्रयका वारण अन्य जन नहीं कर सकते हैं । अभीतक अन्योन्याश्रय दोष तदवस्थ है।
परोपदेशापेक्षस्य तत्वार्थज्ञानस्य सम्यग्दर्शनजननयोग्यस्य परोपदेशानपेक्षतत्त्वार्थज्ञानवत्सम्यग्दर्शनापूर्व स्वकारणादुत्पत्तेर्नेतरेतराश्रयणमित्यपरे सकलचोद्यानामसम्भवादागमाविरोधात् ।
. परोपदेशकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला तत्त्वार्थीका ज्ञान जैसे सम्यग्दर्शनसे पहिले अपने नियत कारणों करके उत्पन्न हो जाता है, तैसे ही परोपदेशकी अपेक्षा रखता हुआ और सम्यग्दर्शनको उत्पन्न