Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
भी प्रमातापनेका अतिप्रसंग है । आत्माका लक्षण ज्ञान है, किसी भी अवस्थामें क्यों न हो आत्माके लब्धिरूप या उपयोगरूप ज्ञान होना आवश्यक है । अन्यथा लक्षणके न रहनेसे लक्ष्यका भी अभाव हो जावेगा । गुणके न रहने पर द्रव्य भी स्थिर रह नहीं सकता है ।
सत्यज्ञानात्पूर्वे तद्विषये ज्ञानं न मिथ्या सत्यज्ञानजननयोग्यत्वात् नापि सत्यं पदार्थयाथात्म्यपरिच्छेदकत्वाभावात, किं तर्हि ? सत्येतरज्ञानविविक्तं ज्ञानसामान्यं, ततो न तेनाधिगतेऽर्थे प्रवर्तमानं सत्यज्ञानं मिथ्याज्ञानं मिथ्याज्ञानाधिगतविषयस्य ग्राहकं । नापि गृहीतग्राहीति चेत्, तर्हि कथञ्चिदपूर्वार्थ सत्यज्ञानं न सर्वयेत्यायातम् । तथोपगमे सम्यग्दर्शनं तथैवोपगम्यमानं कथं मिथ्याज्ञानाधिगतार्थे स्यात् ? सत्यज्ञानपूर्वकं वा ? यतस्तत्समकालं मतिज्ञानाद्युपगमविरोधः ।
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फिर भी कोई कहता है कि सम्यग्ज्ञानसे पहिले उसके ज्ञेय विषयमें जो ज्ञान था वह मिथ्या नहीं था, क्योंकि वह ज्ञान सत्यज्ञानको उत्पन्न करनेकी योग्यता रखता है । जो ज्ञान सत्यज्ञानका बाप बननेके लिए समर्थ हो रहा है, वह मिथ्या नहीं हो सकता है । और सम्यग्ज्ञानके पूर्ववर्ती 1 वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता है । क्यों कि उस समय सम्यग्दर्शन न होनेके कारण और मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय होनेसे वह ज्ञान पदार्थोंका वास्तविक रूपसे प्रतिभास करनेवाला नहीं है। कोई पूंछे कि सम्यग्दर्शन के पूर्व समय में रहनेवाला वह ज्ञान जब सम्यग्ज्ञान भी नहीं और मिथ्याज्ञान भी नहीं, तब तो फिर कैसा ज्ञान है ? बताओ । इस पर हमारा यह उत्तर है कि वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानसे रहित होता हुआ सामान्य ज्ञान है । तिस कारण उस सामान्य ज्ञानसे जाने हुए अर्थमें पीछेसे प्रवृत्ति करता हुआ सत्यज्ञान विचारा सम्यग्ज्ञान ही है, मिथ्याज्ञान नहीं है । और मिथ्याज्ञानसे जाने हुए विषयका ग्राहक भी नहीं है । क्योंकि वह तो सामान्य ज्ञानसे जाने हुए विषयमें प्रवृत्ति कर रहा है । तथा वह गृहीत विषयका ग्राही भी नहीं है । अतः हमारे ऊपर तीनों दोषोंके आनेका प्रसंग नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार कहोगे तब तो यह सिद्धांत आया कि वह सत्यज्ञान किसी अपेक्षासे स्यात् अपूर्व अर्थको विषय करता है, सर्वथा ही अपूर्व अर्थको विषय नहीं करता है, क्योंकि अपने ही सामान्य ज्ञानसे जाने हुए विषयमें सम्यग्ज्ञानकी प्रवृत्ति होना माना है । जब सम्यग्ज्ञानको कथञ्चित् अपूर्वार्थग्राही आप मान लेते हैं तो तैसे ही सम्यग्दर्शनको भी तिस ही प्रकार स्वीकार करते हुए आप मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थमें सम्यग्दर्शनकी प्रवृत्तिका कटाक्ष कैसे सकेंगे ? । तथा सम्यग्ज्ञानके पूर्व में ही सम्यग्ज्ञानकी सत्ताका प्रसंग भी कैसे दे सकेंगे ? जिससे किं उस सम्यग्ज्ञानके समानकालमें मतिज्ञान आदि यानी मतिज्ञान और अवधिज्ञानके स्वीकार करनेका विरोध हो सके । भावार्थ — सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनोंके पहिले सामान्य ज्ञान था और सम्यग्दर्शनके समयमें वही ज्ञान समीचीन मतिज्ञान और अवधिज्ञानरूप परिणत हो जाता है । जैसे कि सासादन गुणस्थान में अव्यक्तरूपसे अतत्त्वरुचि है । मिथ्यात्व में आनेपर वही अतत्त्वरुचि व्यक्त हो जाती है ।
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