Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नको नित्यपना न होनेके कारण अनादिताका निराकरण सिद्ध कर दिया है। कारिकाके :प्रथम पादका विवरण हो चुका।
नित्यहेतुकत्वाभावे सर्वदोत्पत्तिव्यवच्छेदोनुपपन्नः केषाञ्चित्संसारस्य तादृश स्वेपि सर्वदोत्पत्तिदर्शनादिति चेन्न, तस्य नित्यहेतुसन्तानत्वात् ।। - अब सम्यग्दर्शनके नित्यहेतुकपनेके खण्डनार्थ विचार चलाते हैं । तहां शंकाकारकी आरसे पूर्वपक्ष उठाया जाता है कि आप जैनोंने कारिकाके द्वितीयपादमें सम्यग्दर्शनको नित्यहेतुकाना न मानते हुए यह कहा है कि यदि सम्यग्दर्शनका हेतु ( कारण ) नित्य माना जावेगा तो उस सम्पग्दर्शनकी सर्वदा उत्पत्ति होती रहेगी। किंतु सम्यग्दर्शनका हेतु नित्य नहीं है। अतः सर्वदा उत्पाते ही होते रहनेका प्रसंग नहीं होता है, यह आप जैनोंका कहना हमको अच्छा नहीं लगा। क्योंकि सम्यग्दर्शनको नित्यहेतुकपना ( नित्य विद्यमान रहता है ज्ञापक हेतु जिसका, इस बहु हि सनसमें " कप्" प्रत्यय किया है ) न माननेपर आपका इष्ट किया गया सर्वदा उत्पत्तिका व्यवच्छेद ( निषेध करना ) सिद्ध नहीं हो पाता है, कारण कि जो जो नित्यहेतुक नहीं हैं वे वे सर्वदा उत्पत्तिवाले नहीं हैं, इस व्याप्तिमें व्यभिचार दोष है। देखिये, किन्हीं अभव्य जीवोंके संसारको नित्यहेतुकपना नहीं है। तैसा होते हुए भी उनके संसारको सर्वदा उत्पत्ति होना देखा जाता है ग्रंथकार उत्तरपक्ष बोलते हैं कि शंकाकारका ऐसा कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उन जीवोंके संसारके हेतुकी नित्यरूपसे स्तान बनी रहती है । अर्थात् संतानरूपसे नित्यहेतुकपना होते हुए ही संसारको सर्वदा उत्पत्ति हो रही है। उत्पत्तिका विरोध नहीं होने पाता है । अतः हम जैनोंने यह ठीक कहा था कि नित्यहेतुकपना न होनेके कारण ही सम्यग्दर्शनकी सर्वदा उत्पत्तिका व्यवच्छेद है, यानी सदा उत्पत्ति नहीं होने पती है । यहांतक सम्यग्दर्शनके नित्यहेतुकपना न होनेके कारण सर्वदा उत्पत्ति होते रहनेका निराक स्गं हुआ सिद्ध कर दिया है । कारिकाके द्वितीय पादका विवरण हो चुका ।
प्रागभावस्याहेतुकत्वेऽपि नित्यत्वसत्वयोरदर्शनानाहेतुकस्य सम्यग्दर्शनस्य तत्प्रसंगो येन तन्निवृत्तये तस्य सहेतुकत्वमुच्यत इति चेन, प्रागभावस्याहेतुकत्वासिद्धेः।। ... अब सम्यग्दर्शनके अहेतुकपनेके खण्डनार्थ विचार चलाते हैं । तहां शंकाकारकी ओरसे पूर्व पक्ष उठाया जाता है कि आप जैनोंने कारिकाके तृतीय पादमें सम्यग्दर्शनको अहेतुकपना न मागते हुए यह कहा है कि यदि सत् रूपसे विद्यमान माने गये सम्यग्दर्शनका उत्पादक कोई हेतु न माना जावेगा तो वह सम्यग्दर्शन नित्य हो जावेगा और आत्माको उसकी सत्तासे सदा सम्बन्धित रहने का प्रसंग आवेगा, किंतु सम्यग्दर्शनके हेतुओंका अभाव नहीं है, तिस ही कारण सत् सम्यग्दर्शनके नित्य ही विद्यमान रहनेका और नित्य ही उसकी सत्ताके सम्बन्धका प्रसंग नहीं है । यह वार्तिकका उत्तरार्व हमको अच्छा नहीं लगा, क्योंकि सम्यग्दर्शनको अहेतुकपना न माननेपर आपका इष्ट किया गया सर्वदा ही नित्यपनेके निषेधका होना नहीं बनता है । कारण कि जो जो अहेतुक होते हैं, वे वे सर्वदा