Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः.
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥
वह प्रसिध्द सम्यग्दर्शन तो परोपदेशके विना अन्य अभ्यन्तर और बहिरंग कारणोंका समुदा यरूप स्वभावसे अथवा श्रेष्ठ आगमके आश्रित होरहे परोपदेश से उत्पन्न हुए अधिगमरूप ज्ञानसे उत्पन्न होता है।
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उत्पद्यत इति क्रियाध्याहारान्न नित्यं सम्यग्दर्शनं ज्ञायत इति । नोत्पद्यत इति क्रियाध्याहारान्नित्यं तदिति चेत्, द्रव्यतः पर्यायतो वा १ द्रव्यतश्चेत् सिध्दसाध्यता । पर्यायतस्तु तस्य नित्यत्वे सतत संवेदनप्रसङ्गः ।
मूलसूत्रमें पञ्चमी विभक्तिवाले दो पद कहे गये हैं, इस कारण उत्पन्न हो जाता है ऐस क्रियाका अध्याहार करलिया जाता है। जो पद सूत्रोंमें नहीं होते हैं वे दूसरे सूत्रोंसे ले लिये जाते हैं। और अस्ति ( है ), भवति ( होता है ), उत्पद्यते ( उपजता है ) वर्तते ( वर्ते है ): आदि क्रियायें किसी भी आगे पीछेके सूत्रोंमें नहीं मिलती हैं, उन गम्यमान क्रियाओंका योग्यता और तात्पर्य बलसे शाब्दबोध करानेके लिये अध्याहार करलिया जाता है । प्रकृत में उपयोगी होरहे शाब्दबोधके लिये गम्यमान क्रियाओंका और पदोंका बाहिर से आयोजन करलेना अध्याहार कहलाता है । जब कि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें निसर्ग और अधिगम ये दो कारण बतलाये जारहे हैं, ऐसी दशामें सम्यग्दर्शनका नित्यपना नहीं जाना जासकता है । यहां कोई शंका करता है कि जैसे आपने " उत्पद्यते " क्रियाका अध्याहार किया है, उसीके समान यदि “ नोत्पद्यते " यानी सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम इन दोनों कारणोंसे उत्पन्न नहीं होता है, हमारे द्वारा ऐसी क्रियाका अध्याहार करनेपर तो वह सम्यग्दर्शन नित्य हो जावेगा । आपकी “ उत्पद्यते " क्रियाका अध्याहार तो किया जावे, और हमारी “ नोत्पद्यते " क्रियाका अध्याहार न किया जावे, इसका नियामक आप जैनोंके पास कुछ नहीं है। ऐसा कटाक्ष करनेपर तो सम्यग्दर्शनको नित्य माननेवाले वादीसे हम जैन पूंछते हैं कि आप सम्यग्दर्शनको द्रव्यरूपसे नित्य कहते हो अथवा पर्यायरूपसे ? बताओ । यदि
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दृष्टि सम्यग्दर्शनको नित्य कहोगे तब तो हमको भी इष्ट है । भावार्थ — सम्यग्दर्शनभाव जिस अखण्ड द्रव्यका अंश है वह आत्मद्रव्य नित्य है । अंशीसे अंश अभिन्न है, इसलिये सम्यग्दर्शन भी नित्य है, ऐसा माननेपर आपके ऊपर सिध्दसाधन दोष है । क्योंकि जिस सिद्धान्तको हम मान रहे हैं। उसीको पुष्ट करनेसे या उसके अनुरूप कटाक्ष करनेसे क्या लाभ? और दूसरे पक्ष के अनुसार यदि पर्यायार्थिक नयसे उस सम्यग्दर्शनको नित्य मानोगे तब तो सदाकाल ही सम्यग्दर्शनके संवेदन होते रहनेका प्रसंग होगा, क्योंकि आपके मतानुसार सम्यग्दर्शन पर्याय सर्वदा विद्यमान है । किन्तु उस सम्यग्दर्शन पर्यायका सर्वदा संवेदन तो होता नहीं है । अतः सम्यग्दर्शनपर्यायको नित्य नहीं मानना चाहिये ।
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