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भगवती आराधना दर्शनावरणात् अतिशयितपूजाभाज इत्ययमर्थोऽनेन 'अरहते' इत्यनेनोक्तः । अनुगतार्थत्वादर्हन्निति संज्ञायाः यथा सर्वनामशब्दोऽङ्गीकृतशब्दार्थसंज्ञाभावमुपयाति । अथवा 'जगप्पसद्धि' इति अर्हतां विशेषणं, यतः पञ्चमहा कल्याणस्थानेषु विष्टपत्रयेणाधिगता महात्मानः, नैव मितरे सिद्धाः । सर्वस्यैव हि वस्तुनः कथंचित्प्रतीतत्वे सति अप्रतीतस्य कस्यचिदभावात प्रसिद्धग्रहणमपात्तप्रकर्पमिति गम्यते । यथाऽभिरूपाय कन्या देयेति । तेनायमों जगति प्रसिद्धतमानिति । अर्हतामेव च प्रतीततरत्वमुक्तेन क्रमेण ।
अनधिगतप्रयोजनः श्रौता न यतते श्रवणेऽध्ययने वा। परोपकारसंपादनाय चेदं प्रस्तूयते मया ततः प्रयोजनं प्रकटयामीत्याह 'वोच्छं आराहणं' मिति । एतेनाराधनास्वरूपावगमनं प्रयोजनं शास्त्रश्रवणाद्भवतां भवतीत्यावेदितम् ।
नत्वाराधनास्वरूपावगमनं तु पुरुषार्थः । पुरुषार्थो हि प्रयोजनं, पुरुषार्थश्च सुखं दुःखनिवृत्तिा , न चानयोरन्यतरतास्य। अयमस्याभिप्रायः, यो येनार्थनार्थी स तत्प्राप्तये तदीयोपायमधिगंतुमुपादेयं वा यतते येन प्रयुक्तः क्रियायां प्रवर्तते तत्प्रयोजनं, ज्ञानेन प्रयुज्यते श्रवणादिक्रियायामुपयोगिवस्तुपरिज्ञानं प्रयोजनं भवतु; आराधना तु कथमुपयोगिनी ? सकलसुखरूपकेवलज्ञानपरमाव्याबाधतां जनयतीत्युपयोगिनी । तथा चोक्तं'चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तानिति' । ततोऽयमर्थः, अनन्त ज्ञानादिफलनिमित्ताराधनाऽवबोधनार्थमिदं शास्त्रमा
मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेसे तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणके चले जानेसे जो अतिशय युक्त पूजाके भाजन हैं, यह अर्थ 'अरहंते' पदसे वहाँ कहा गया है; क्योंकि 'अर्हन्' यह नाम सार्थक है। जैसे सर्वनाम शब्द स्वीकार किये गये शब्दार्थोके संज्ञापनेको अपनानेसे सार्थक हैं ।
अथवा 'जगत् प्रसिद्ध' यह पद अर्हन्तोंका विशेषण है; क्योंकि ये महात्मा पाँच महाकल्याणक स्थानोंमें तीनों लोकोंके द्वारा जैसे प्रख्यात होते हैं वैसे अन्य सिद्ध नहीं होते । सभी वस्तु किसी न किसी रूपमें प्रतीत होती हैं, सर्वथा अप्रतीत कोई नहीं है । अतः यहाँ 'प्रसिद्ध' पदका ग्रहण प्रकर्षताका परिचायक है। जैसे 'रूपवानको कन्या देना' । यहाँ रूपवान् शब्द विशिष्ट रूपका बोधक है। अतः 'जगत में सबसे' अधिक प्रसिद्ध यह अर्थ यहाँ लेना। और उक्त प्रकारसे अर्हन्त ही सबसे अधिक या सिद्धोंसे अधिक प्रसिद्ध हैं।
प्रयोजनको जाने बिना श्रोता श्रवण या अध्ययनमें प्रयत्न नहीं करता। और मैं (ग्रंथकार) परोपकार करनेके लिये यह ग्रन्थ बनाता है, अतः प्रयोजन प्रकट करता हूँ-'वोच्छं आराहणं' इससे यह प्रयोजन सूचित किया है कि शास्त्रश्रवणसे आराधनाके स्वरूपका ज्ञान होता है।
शंका-आराधनाके स्वरूपको जानना तो पुरुषार्थ नहीं है; क्योंकि पुरुषार्थ प्रयोजन है और पुरुषार्थ है सुख अथवा दुःखनिवृत्ति । आराधनाके स्वरूपको जानना न तो सुख है और न दुःख निवृत्ति है। हमारे इस कथनका अभिप्राय यह है कि जो जिस अर्थका इच्छुक होता है वह उसकी प्राप्तिके लिये उसके उपाय या उपादेयको जाननेका प्रयत्न करता है। जिसके द्वारा प्रेरित होकर, मनुष्य क्रियामें लगता है वह प्रयोजन हैं । ज्ञानके द्वारा श्रवण आदि क्रियामें लगता है अतः उपयोगी वस्तुका ज्ञान प्रयोजन हो सकता है परन्तु आराधना कैसे उपयोगी है ?
__ समाधान-समस्त सुख रूप केवलज्ञान और परम अव्याबाधताको उत्पन्न करनेसे आराधना उपयोगी है। कहा है 'चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त ।'
अतः अभिप्राय यह है कि अनन्त ज्ञानादि रूप फलकी प्राप्तिमें निमित्त आराधनाके स्वरूप
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