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वन्दे श्रीवीरमानन्दम्।
(श्री जसवंतराय जैनी) अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया।
नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ जैन धर्म में अनेक समर्थ विद्वान हो गये हैं, जिन्हों ने प्रत्येक शास्त्ररचना के प्रारंभ में मंगलाचरणरूप इष्टदेव का स्मरण-वंदन तथा गुरुवंदन आदि करके अपने कार्य की निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति के लिये जयध्वनियों से प्रार्थना की है। यह प्रथा एक प्राचीन शास्त्रविहित विधि है, यथा-जगद्गुरुं नमस्कृत्य, श्रुत्वा सद्गुरुभाषितं । ग्रहशांतिं प्रवक्ष्यामि, लोकानां सुखहेतवे ॥१॥ यह मंगलाचरण है पंचमश्रुतकेवली भगवान श्री भद्रबाहुस्वामीजी का। ' महाजनो येन गतः स पंथाः' की नीति दृष्टि में रखते हुए मैंने सबसे प्रथम ऊपर की पंक्ति में 'वीरं' श्री भगवान महावीरप्रभु को नमस्कार किया है और 'आनंद' अपने परमोपकारी स्वनेत्रदृष्टि आनंददाता गुरुदेव का स्मरण कर उनके पादपद्म में सादर सविनय नमस्कार किया है, जिन्हों ने अज्ञानरूपी अंधकार में भटकते, ठोकरें खाते और उन्मार्ग में परिभ्रमण करते अनेक मनुष्यों का उद्धार कर दिया, अर्थात् ज्ञानांजन सलाई से उनके नेत्र आंज कर उन्हें सत्यासत्य के निर्णयार्थ ज्योतिःसम्पन्न बना दिया । सत्य कहा है- " गुरुदीवो गुरुदेवता, गुरुविन घोरअंधार।"
हिंदुस्तान में, कहते हैं, ५२ लाख गुरु हैं । सच्चा गुरु किसे मानना यह जांच बड़ी कठिन है, क्यूं कि हर पहाड़ में मानक, हीरे, पन्ने नहीं होते और न हर वन में चंदन के वृक्ष । गाय, भेंस, बकरियों की टोलिये तो देखने में आती हैं, परंतु सिंह की टोली भी कभी किसी ने देखी है ? नहीं । बस समझ लो, सच्चा गुरु विरला होता है। गुरु का सामान्य लक्षण है-" महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः।" गुरुका गुरुत्व उसके उज्ज्वल निर्मल चारित्र में है, साधु का जीवन है शांतिमय, ज्ञानमय, उपकारमय और चारित्रमय । ऐसे साधुजीवन की शीतल छाया के सामने चंद्र और चंदन की शीतलता भी मंद है । ऐसे गुरुदेव वह कौन हैं ? कहां हैं ? वह हैं आनंददाता श्री
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