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श्रीमद्विजयानंदेसरि
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महाष दयानट
(लेखकः पृथ्वीराज जैन, भूतपूर्व वि०, जैन गुरुकुल - गुजरांवाला )
भारतवर्ष के इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दि का इतिहास घोर पतन की करुण कहानी है । इस समय भारतवासियों ने केवल राजनैतिक पराधीनता ही स्वीकार नहीं की बल्कि उनकी सामाजिक और धार्मिक परम्परायें भी एक गुप्त शक्तिद्वारा क्रान्ति की आड़ में लुप्तप्रायः हो चली थीं । विश्वविख्यात भारतीय सभ्यता को वहशियाना, उस के साहित्य को पागल प्रलाप तथा सर्वविध निपुण पूर्वजों को (old fools ) ओल्ड फूल्ज़ के नाम से पुकारा जाने लगा था । पाश्चात्य सभ्यता तथा धार्मिक विचारधारा का आक्र- मण हिन्दु जाति पर इस्लाम की तरह आन्धी और तूफान से मिश्रित न था प्रत्युत वह प्रतिदिन चलनेवाली मन्द वायु के समान था जिस के बिना किसी भी व्यक्ति का जीवित रहना असम्भव है | हिन्दु समाज में कुछ ऐसी विकृतियों का समावेश हो गया था जो उसकी जड़ों को प्रतिक्षण खोखला कर रही थीं । भारतवासी नौकरी के प्रलोभन से, विवाह की सुविधा से, जातिभेद की सुख्ती से स्वतन्त्र होने की अभिलाषा से, सरकार को प्रसन्न कर के उपाधि लेने की हवस से तथा अन्य अनेक ऐसे कारणों से बड़ी संख्या में ईसाई धर्म को अपनाने लगे और हिन्दु धर्म के शत्रु बन गये । विजेता जाति ने पराजित जाति को ऐसी शिक्षण - प्रणाली में बान्धना प्रारम्भ किया जिस से नवयुवक स्वत्व को विस्मृत कर केवल जन्म, वर्ण एवं रक्त से हिन्दुस्तानी रहें तथा विचार, वेशभूषा, खानपान इत्यादि में अपने गौराङ्ग प्रभुओं की नकुल करने में गौरव समझें । ऐसी शोचनीय अवस्था में भारतवर्ष की भूमि ने कुछ ऐसे महापुरुषों को जन्म दिया जिन्हों ने हिन्दु जाति की डूबती हुई नाव के नाविक बनकर इसे पार लगाने का भगीरथ प्रयत्न किया । नवी आत्माओं में राजा राममोहनराय, महर्षि दयानन्द तथा श्रीमद्विजयानन्दसूरि मुख्य हैं । पिछले दो महात्मा समकालीन हैं। हमें इन दोनों के जीवनचरित्र में बहुत
शताब्दि ग्रंथ ]
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