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श्री. वासुदेवशरण अग्रवाल
उन्हीं की श्रद्धा-भक्ति का फल थीं। सब सत्त्वों के हितसुख के लिए [ सर्वसत्त्वानां हितसुखाय ] और अर्हत पूजा के लिए [ अर्हत्पूजायै ] ये दो वाक्य कितनी ही बार लेखों में आते हैं । ये उस काल के भक्तिधर्म की व्याख्या करनेवाले दो सूत्र हैं जिन में इस लोक के जीवन को परलोक के साथ मिलाया गया है । गृहस्थों की पुरंध्री कुटुम्बिनी बड़े गर्व से अपने पिता, माता, पति, पुत्र, पौत्र, सास-ससुर का नामोल्लेख करके उन्हें भी अपने पुण्य का भागधेय अर्पण करती थीं । स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय ही मथुरा का प्राचीन भक्तिधर्म था ।
देवपाल श्रेष्ठी की कन्या श्रेष्ठी सेन की धर्मपत्नी क्षुद्रा ने वर्धमान प्रतिमा का दान करके अपने को कृतार्थ किया । श्रेष्ठी वेणी की धर्मपत्नी, भट्टिसेन की माता कुमारमित्रा ने आर्या वसुला के उपदेश से एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की । यह वसुला आर्यजयभूति की शिष्या आर्या संगमिका की शिष्या थी । सर्वलोकोत्तम अर्हतों को प्रणाम करने - वाली सुचिल की धर्मपत्नी ने भगवान् शान्तिनाथ की प्रतिमा दान में दी । वज्री शाखा के वाचक आर्यमातृदत्त जो आर्यबलदत्त के शिष्य थे, इसके गुरु थे । मणिकार जयभट्टि की दुहिता, लोहवणिज फल्गुदेव की धर्मपत्नी मित्रा ने कोट्टिय गण के अन्तर्गत ब्रह्मदासिक कुल के बृहन्तवाचक गणि जमित्र के शिष्य आर्यओध के शिष्य गणि आर्यपाल के श्रद्धाचर वाचक आर्यदत्त के शिष्य वाचक आर्यसिंह की निर्वर्तना या प्रेरणा से एक विशाल जिनप्रतिमा का दान दिया । पुनश्च कोट्टिय गण के आचार्य आर्यबलत्रात की शिष्या संधि के उपदेश से जयभकी कुटुम्बिनी ने प्रतिमा-प्रतिष्ठा की. ( E. I. vol. 1, Mattura ins. no. 5 ) एवं इन्हीं आर्य बलत्रात की शिष्या संधि की भक्त जया थी जो नवहस्ती की दुहिता, गुहसेन की स्नुषा, देवसेन और शिवदेव की माता थी और जिस ने एक विशाल वर्धमान प्रतिमा की ११३ ई० के लगभग प्रतिष्ठा कराई. ( E. 1. vol II. 1. 34 ) 1. पूज्य आचार्य बलदत्त को अपनी शिष्या आर्या कुमारमित्रा पर गर्व था । शिलालेख में उस तपस्विनी को
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संशित, मखित, बोधित ' ( whetted polished and awakened ) कहा गया है । यद्यपि वह भिक्षुणी थी । तथापि उसके पूर्वाश्रम के पुत्र गधिक कुमार भट्टिने १२३ ई० में जिनप्रतिमा का दान किया । यह मूर्ति कंकाली टीले के पश्चिम में स्थित दूसरे देवप्रासाद के भग्नावशेष में मिली थी । पहले देवमन्दिर की स्थिति इसके कुछ पूर्वभाग में थी । महाराज राजातिराज देवपुत्र हुविष्क के ४० वें संवत्सर [ १२८ ई० ] में दत्ता ने भगवान् ऋषभदेव की स्थापना की जिस से उस के महाभाग्य की वृद्धि हो । शिलालेख नं० . से ज्ञात होता है कि चारणगण के आर्यचेटिक कुल की हरितमालगढी शाखा के आर्य भगनन्दी के शिष्य वाचक आर्य नागसेन प्रसिद्ध आचार्य थे ।
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