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[ लेखक-श्री. नाथूराम प्रेमी ]
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[लेखक महाशय एक सिद्धहस्त लेखक और प्रामाणिक विचारक हैं। सम्प्रदायमोहका दर्शन उनमें बिलकुल नहीं पाया जाता । उनकी विचार श्रेणी अनेकातिक-समग्र और व्यापक दृष्टिसे शृंखलाबद्ध रहती है । आपसआपसके, खुल्लक मतभेद से उत्पन्न हुए क्लेशसे कितनी हानि समग्र जैनधर्मको पहुंची है उसका अच्छा दिग्दर्शन इस लेख में कराया गया है। सारी जैन समाज इस पर पुरा लक्ष देकर अपना भविष्य सुधारे और राष्ट्रहितके लिये आवश्यक संगठनबल में अपने बल का साथ दे यही इस लेखका सुप्रयोजन है-संपादक .
संसारमें शायद एक भी ऐसा धर्म नहीं है जिसमें अनेक सम्प्रदाय, उपसम्प्रदाय, संघ, पन्थ आदि न हों, फिर जैनधर्म भी इसका अपवाद कैसे होता ? इसमें भी दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तारनपन्थी आदि अनेक सम्प्रदाय हो गये हैं। इनकी मानताओंमें जो अन्तर हैं वे बहुत स्पष्ट हैं, उन्हें सभी जानते हैं; परन्तु फिर भी इस बातसे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन अन्तरोंके अतिरिक्त सबमें एकता और समानता भी है जिसके कारण ये सभी · जैन' इस व्यापक नामसे संबोधित किये जाते हैं। बल्कि जिनकी दृष्टि कुछ विशाल है, जो जरा गहराईसे सोच-विचार सकते हैं वे असमानताओंकी अपेक्षा इनमें समानता ही अधिक देखते हैं। दुर्भाग्यसे इस देशपरसे एक ऐसा युग प्रवाहित हो गया है, जिस युगमें हृदयकी अपेक्षा मस्तिष्क अधिक प्रधानता पा गया था और जब युक्ति-तर्ककी कसरत दिखा सकनेवालोंके हाथमें ही धर्म-जगत्की बागडोर आ गई थी। यदि ऐसा न होता तो ये सम्प्रदायों और पन्थोंके अखाड़े इतने मजबूत न हो गये होते और इनके द्वारा अविभक्त जैनधर्मको इतनी हानि न उठानी पड़ी होती ।
धों और सम्प्रदायोंके इतिहासका अध्ययन करनेवाले आधुनिक विद्वानोंको बड़ा आश्चर्य होता है, जब वे देखते हैं कि साधारणसे साधारण मतभेदोंके कारण अलग
शताब्दि ग्रंथ ] .
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