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अनेकान्तवाद
( ले० श्रीमान् पं० गिरिजादत्तजी त्रिपाठी न्याय - व्याकरणाचार्य एम. ए. )
स्मरणातीत काल से यह उलझन उपस्थित है कि क्या धर्म ( Religion ) और दर्शन ( Philosophy) परस्पर सहकारी हैं या अहिनकुलवत् इनमें विरोध है ? कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने इन दोनों को बिलकुल भिन्न भिन्न माना है । वे धर्म को एक सीमित परिधि के अन्दर रखना चाहते हैं और दर्शन को इस से बाहर । एक धार्मिक व्यक्ति कुछ ऐसी रूढियों के भार से दबा है कि उसे उससे बाहर निकलने का अवकाश ही नहीं है । वह न तो कुछ स्वतन्त्रतापूर्वक शोच सकता है और स्वतन्त्रतापूर्वक आचरण ही कर सकता है । लेकिन एक दार्शनिक व्यक्ति यदि उस सीमित परिधि के अन्दर रहने के लिये बाध्य किया जाय तो उसकी सारी कल्पना और विचारशक्ति विलीन हो जाय । इस लिये उन विद्वानों ने इन दोनों के लिये दो भिन्न भिन्न क्षेत्र नियत किये हैं । लेकिन भारतीय विचारशील विद्वानों ने इन दोनों को भिन्न भिन्न न मानकर दोनों को साथ साथ चलाने का प्रयत्न किया । हां, यह ज़रूर है कि इन दोनों के उद्देश्य में कुछ अन्तर पड़ता है, परंतु इन थोड़ी-सी विषमताओं के सिवा इन में पूर्ण एकता है । लॉर्ड एवर्बरी के शब्दों में धर्म का उद्देश्य इस प्रकार है:
Religion was intended to living peace on earth and good-will towards men, and whatever tends to hatred and persecution, however correct in the letter, must be utterly wrong in the spirit ' अर्थात् - धर्म की प्रवृत्ति धरातल पर शान्ति और मानवसमाज की ओर सदिच्छा लाने के लिये है । जिस से घृणा और किसी प्रकार की अशान्ति की उत्पत्ति हो वह कभी भी इस वायरे के अन्दर आने लायक नहीं है । दूसरी तरफ जब राजनैतिक और आर्थिक वातावरण के प्रलयकारी झंझावात से मनुष्य की मनोनौका विषम परिस्थिति के अथाह सागर में डांवाडोल होने लगती है और शान्तिदायक सच्चे मार्ग का पता ढूंढ़ निकालना कठिन हो जाता है उस समय दर्शन ही वेलातट के प्रकाश का काम करता है । इस प्रकार यह दर्शन भी अन्तःकरण में उसी शान्ति का बीज बोता है जिस के लिये धर्म की प्रवृत्ति होती है । इसी विचार के फलस्वरूप भारतीय
[ श्री आत्मारामजी
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