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શ્રીમદ્ આત્મારામજી તરફથી પત્ર તેમ નથી તો પણ જે લહીઓ શુદ્ધ લખવાવાળો ઘણું કરીને છે તેની પાસે લખાવીને મોકલશું. એ રીતે લખી જણાવજે.
હાલમાં માહારાજજી એક નવું જેન મત વિષે પ્રશ્નોત્તરનું પુસ્તક બનાવામાં રોકાયેલ છે તે જાણજે. દા. મુ. વલભવિજયના ધર્મલાભ વાંચજે, સુદિ ૧૩ વાર બુધ.
श्री
मु० सुरतबंदर *मुनि श्री आलमचंदजी योग्य लि. आचार्य महाराजश्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वरजी (आत्माराजजी) महाराजजी आदि साधु मंडल ठाने ७ के तर्फ से वंदणाऽनुवंदणा १००८ वार बांचनी । चिठी तुमारी आइ समंचार सर्व जाणे है । यहां सर्व साधु सुखसाता में है, तुमारी सुखसाता का समंचार लिखना
मुहपत्ति विशे हमारा कहना इतना हि है कि मुहपत्ति बांधनी अच्छी है और धणे दिनों से परंपरा चली आई है इनको लोपना यह अच्छा नहीं है।
* कितनेक इस प्रकरण और समय के अनभिज्ञ खास मतलब के समझे बिना अपनी इच्छानुसार खीचातान कर के पक्षपात को दृष्टि से अपने कदाग्रह को सिद्ध करने में इस पत्र का दुरुपयोग करते नजर आते हैं ! इस लिए इस पत्र की बाबत कुछ खुलासा करना जरूरी समझा जाता है। गुजरात आदि देशों में विचरते हुए कितनेक तपगच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों के साधु-यति केवल व्याख्यान के समय एक कपडे के टुकड़े से मुख और नाक बांध लिया करते हैं जिसको 'मुहपत्ति बांधना' कहते हैं! वह भी कपडे के टुकड़े को तिरछा कर के दो छेडे ( किनारे) दोनों कानों में फसा लिये जाते हैं, परंतु स्थानकवासी (बँढियों) की तरह डोरा डाल कर नहीं! और सारे दिन-रात भी नहीं!। खरतरगच्छ के सुप्रसिद्ध मुनि महाराज श्री मोहनलालजो के शिष्य श्री आलमचंदजी सुरत शहर में चौमासा रहे थे, उनको किसि ने पूछा कि आप के गुरुजी तो व्याख्यान के समय मुहपत्ति बांधते हैं आप क्यों नहीं बांधते ? इस पर उन्हों ने स्वर्गवासी आचार्य देव से पूछा ! (क्यों कि उनको आचार्य महाराज पर पूर्ण विश्वास था कि, यह मुझे योग्य सलाह देवेंगे।) जिस के जवाब में यह पत्र लिखवाया गया है।
इस में साफ लिखा गया है कि “घणे दिनों में परंपरा चली आई है" इस से स्पष्ट सिद्ध है कि यह प्रथा सूत्रसिद्ध तो नहीं है। और परंपरा हमेशा की नहीं तथा हमेशां रहती भी नहीं इस लिए सज्जनों से सनम्र निवेदन है कि, इस पत्र को शस्त्र न बनाकर स्वर्गीय आत्मा की सत्यपरायणता का ही ख्याल करें।
वल्लभविजय-मीयागाम ( बडौदा स्टेट )
२९-४-१९३६
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[ श्री मात्माराम
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