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श्री गिरिजादत्तजी त्रिपाठी सभी दर्शन अपने मजबूत पैरों पर खड़े हुए। यह जैन दर्शन भी इस नियम का अपवाद नहीं रहा । यद्यपि बाह्य पर्यालोचन मात्र से इन दोनों के दृष्टिकोण में कुछ अन्तर की झलक दीख पड़ेगी लेकिन यदि इसका सूक्ष्म विवरण किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि वास्तव में इनके उद्देश्य में कोई भेद नहीं है। इसी भाव से प्रेरित हो कर मैं पाठकों के सामने जैन धर्म तथा दर्शन के सम्बन्ध की कुछ बातें उपस्थित करता हूँ।
जैन धर्म के सम्बन्ध में पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वानों में बहुत बड़ी गलत फहमी फैली हुई थी। कुछ पाश्चात्य विद्वान् यह मानते थे कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला हुआ हैं। यह मानने का कारण यही हैं कि इन दोनों में कुछ समानता दीख पड़ती है। कुछ भारतीय विद्वान् भी जैन धर्म सम्बन्धी ज्ञान न होने के कारण यही मान बैठे थे कि यह कोई स्वतन्त्र धर्म नहीं हैं अपि तु बौद्धधर्म की ही एक शाखा हैं । इन दोनों तरह के विद्वानों के मत सर्वथा निर्मूल सिद्ध हो गये हैं और आज के वर्तमान संसार में इस बात की पुष्टि हो गयी हैं कि यह जैनधर्म उतना ही पुराना है जितना बौद्धधर्म । यह निर्विवाद सिद्ध है कि महावीर बुद्ध के समकालिक थे । इस के साथ ही साथ यह भी सर्वसिद्ध वात हैं कि महावीर न तो किसी धर्म के जन्मदाता थे और न किसी सम्प्रदाय के। वे तो केवल एक साधु थे जिन्हों ने जैनधर्म का आलिङ्गन कर उस सच्चे तत्त्व के दृष्टा हो गये थे जिसके लिये इस धर्म की प्रवृत्ति है। वे चौवीस तीर्थंकरो में अन्तिम तीर्थंकर थे। सभी तीर्थङ्करों ने उपदेशद्वारा इस धर्म की बुनियाद कायम रखने की भगीरथ चेष्टा की है और इसीलिये ईसा के कम से कम ८०० वर्ष पहले से लेकर आजतक इस की हस्ति कायम हैं । अब यहां पर इस थोड़े से ऐतिहासिक परिचय के बाद जैन दर्शन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ विचार किया जाता है । इस में सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि जैन दर्शन के बहुत पहले उपनिषदों का ही एक मात्र साम्राज्य था। वस्तुओं के स्वभाव के सम्बन्ध में उपनिषदों के विचार यह हैं कि किसी वस्तु में प्रतीयमान नामरूपादि सब मिथ्या है । सत्य केवल वही है जिस के आधार पर नामरूपों की विविध कल्पना की जाती है । दृष्टान्त के लिये एक सुवर्ण पिण्ड को लीजिये । एक ही सुवर्ण पिण्ड से कभी कुण्डल बनाया जाता हैं, कभी वलय बनाया जाता हैं तो कभी कोई दूसरा भूषण । एक ही सुवर्ण की भिन्न २ अवस्थायें बदलती जाती हैं लेकिन वह सुवर्ण ज्योंका त्यों अपने स्वभाव के साथ वर्तमान रहता है । उसके रूप और अवस्थाओं का परिवर्तन सिर्फ प्रतीतिमात्र हैं वस्तुसत् नहीं। उस वस्तु की सत्ता के सिवा और किसी चीज की सत्ता नहीं हैं। जिन्हें हम स्थिरता, दृश्यत्व या और किसी नाम से पुकारते हैं उन की वास्तविक सत्ता नहीं हैं । जो विचार उपनिषदों ने रखे हैं ठीक उनके विपरीत बौद्धों के सिद्धान्त थे । बौद्ध यह
शताब्दि ग्रंथ ]
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