Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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श्री. नाथूराम प्रेमी
सांख्यों आदिके खंडनमें काफी साहित्य निर्माण किया है, जिनके न लिखनेसे भी कोई क्षति नहीं होती। परन्तु जिन्होंने कोट्यावधि जैनोंको अपने उदर में डाल कर जैनधर्मको सबसे अधिक क्षीण किया है, उनके विषयमें शायद ही कुछ लिखा हो । कर्नल आलकाटके कथनानुसार मद्रास प्रेसीडेंसीके लगभग ५० लाख जैनी ईसाई-धर्ममें दीक्षित हो गये; परन्तु जैनसाहित्यमें आपको एक भी ग्रन्थ ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें ईसाईधर्मका खंडन किया गया हो ! परन्तु खंडन-मंडनका एक भी ग्रन्थ ऐसा न होगा, जिसमें कि बौद्धोंका खंडन न हो ! और उस बौद्धधर्मका जिसका इस देशसे नामशेष ही हो चुका था और जो कमसे कम अनीश्वरवाद, अहिंसा, क्षमा आदि सिद्धान्तोंकी दृष्टिसे जैनधर्मका औरोंकी अपेक्षा अधिक अपना था। जिन शताब्दियोंमें जैनधर्म बड़ी तेजीके साथ क्षीण हो रहा था, दूसरोंका ग्रास हो रहा था, उस समय यदि दिगम्बर-श्वेताम्बर और उनके पन्थ गच्छ आदि अपनी एकताकी आवश्यकता और सबकी सम्मिलित शक्तिकी महताको महसूस करते, तो इन्ही शताब्दियोंमें वे परस्परके खंडन-मंडनका साहित्य निर्माण न करके कुछ और ही करते ।
परन्तु ये सब तो बीती हुई बातें हैं, जिनपर अनुशोचना करनेसे कोई लाभ नहीं । जो हानि हो चुकी है, वह तो हो चुकी-वह तो मैटी नहीं जा सकती। हाँ, आगेके लिए सावधान होनेकी ज़रूरत है और वह सावधानी यह है कि इस समय हममें जो सम्प्रदाय, उपसम्प्रदाय, पन्थ, उपपन्थ हैं उनमें इस भावकी पुष्टि की जाय कि हम सब एक ही जैनशासनके अनुयायी हैं, सधर्मी हैं और हम सबका कल्याण एकत्र होकर परस्पर प्रेमपूर्वक रहने में ही है। जिन छोटी छोटी बातोंमें मतभेद है, उनको अलग रखकर जिनमें किसी प्रकारका मतभेद नहीं है, उनको रखते हुए भी तो बहुत कुछ किया जा सकता है और संघ-शक्ति बढ़ाई जा सकती है।
हमें समझ लेना चाहिए कि यह वीसवीं सदी है और हम उस जगतमें रहते हैं जिसमें आपस के लड़ाई, झगड़ों, कलह-विसंवादों, अन्ध-श्रद्धा और लोकमूढ़ताओंको प्रश्रय देनेके कारण तथा विज्ञानके मार्गमें रुकावटें डालनेके कारण लोगोंको 'धर्म' नामसे ही चिढ़ होने लगी है और वे उससे ऊब गये हैं। ऐसे समयमें यदि हम सावधान नहीं हुए और आपसके लड़ाई-झगड़े मिटाकर, पन्थों और सम्प्रदायोंके कलह विसंवादोंको एक ओर रखकर एकत्र न हुए, सर्व-धर्म-पन्थ-समभावकी भावनासे युक्त होकर जीवमात्रके कल्याणकारी, सेवाभावी धर्मके वास्तविक स्वरूपको अपने कृत्योंसे प्रकट न कर सके, तो न हम रह सकेंगे और न हमारा महान् धर्म ही रहेगा।
शताब्दि ग्रंथ]
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