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श्री. नाथूराम प्रेमी
और न रखने के सिद्धान्तमें ही था जो थोड़ीसी सहिष्णुता और उदारता रखनेसे शमन किया जा सकता था। और ऐसा मालूम होता है कि प्रारंभमें यह सहिष्णुता और उदारता रक्खी भी गई जिससे बहुत समय तक मत-भेद मत-भेदके ही रूप में रहा, उग्ररूप धारण करके दलबन्दीके दलदलमें नहीं फँसा; परन्तु आगे चलकर यह स्थिति नहीं रही और दोनों बिलकुल पृथक् होकर ही रहे।
इसके बाद दिगम्बरोंमें और फिर श्वेताम्बरों में भी भीतरी मतभेद उत्पन्न हुए और यह मतभेदोंके होते रहनेकी परम्परा बराबर जारी रही । अनेक सम्प्रदायों, पन्थों, गच्छों आदिमें विभक्त होता हुआ भगवान महावीरका शासन बराबर कमजोर होता गया। और आश्चर्य इस बातका है कि इन दो ढाई हजार वर्षों में एक भी ऐसी विभूति उत्पन्न नहीं हुई जिसने इन मतभेदोंके बीच समझौता या सामंजस्य स्थापित करनेकी कोई चेष्टा की हो, कमसे कम इतिहासमें तो इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है ।
वर्तमानमें जो सम्प्रदाय, पन्थ, संघ आदि मौजूद हैं उनके सिवाय और भी अनेक थे, जो अनुयायियोंकी कमीसे तथा दूसरे अज्ञात कारणोंसे नष्ट हो गये और जिनमें से अनेकोंके तो हम नाम ही भूल गये।
पाठकों ने 'यापनीय' या 'याप्य' संघका नाम सुना होगा। इस संघकी यह विचित्रता थी कि यह आगमोंको तो मानता था, स्त्री-मुक्ति और केवलिभुक्तिपर भी विश्वास करता था परन्तु चर्या दिगम्बर मुनियोंकी रखता था, वस्त्रोंका विरोधी था। इस संघकी परम्परा नष्ट हो गई है, साहित्य भी नामशेष हो गया है; परन्तु ऐसा मालूम होता है कि यह संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर मतभेदोंके बीचकी एक कड़ी ( शृंखला ) था और शायद दोनोंके बीच हो सकनेवाले संभावित समझौते की सदिच्छाका परिणाम था । परन्तु समझौता सफल नहीं हुआ और यह एक तृतीय सम्प्रदाय बनकर कुछ समयमें नष्ट हो गया। इसके प्रवर्तक श्रीकलशनामके आचार्य थे और इसकी उत्पत्ति दक्षिणके कल्याण नगरमें ( निज़ाम स्टेट ) में बतलाई गई है।
सम्प्रदाय और संघभेद कितने साधारणसे मतभेदोंके कारण बन जाते हैं इसके उदाहरणोंकी कमी नहीं है। दिगम्बर-सम्प्रदायके मूल-संघ और काष्ठा-संघमें प्रधान भेद यह है कि मूलसंघके साधु जीवरक्षाके लिए मयूरकी पिच्छि रखते हैं और काष्ठासंघके साधु गोपुच्छके बालोंकी । मुख्य उद्देश यह है कि पिच्छि कोमल होनी चाहिए जिससे जीवोंकी विराधना न हो । गोपुच्छसे भी जीवरक्षा होती है; परन्तु जिन्हें मयूर-पिच्छिका ही आग्रह था उन्हें यह सहन न हुआ और उन्होंने काष्ठासंघको जैनाभास करार दिया । शताब्दि ग्रंथ ]
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