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श्री. अगरचंद नाहटा
स्वस्ति श्रीकोटिकगणकल्पद्रुरिव जंगमः । अस्ति विस्तरवानुर्व्यां वैरी शाखेति विश्रुताः तदुत्थ शुद्ध शाखायामभूदायति शालिनी । विशाला प्रतिसाखेव श्रीचंद्रकुलसंतति तस्यां समन्वजायंत सूरयः शीलसागराः । कलंदिकाहिकालिंदीविलोडनहरेः रः समाः षट् पंचाशतमे* पट्टे सुधर्मा स्वामितो भृशं । महेश्वरवराचार्या बभ्रुवुः सूरिपुंगवाः तत्पट्टेऽजितदेवेन सुशिष्याणां हिताय वै । परात्मनोर्बोधिलाभाय कृतेयं शिशुबोधिनी श्रीमति रुद्र द्विगुणिते वत्सरे भूपपूर्वके । विहितेयं पूर्वटीकातः शोधयंतु विचक्षणाः
लेखन प्रशस्तिः- त्रिवर्गे गंज (!) संयुक्त वर्षे विक्रमभूपतेः । वेदवर्गौदिमे मासि मार्गशीर्षाभिधान द्वितीयायां पुष्पतिथौ दैत्याचार्यसुवासरे । चंद्रगच्छाधीशेभ्यो लिखाप्य कल्पपुस्तकं दत्तं विशुद्धचित्तेन लोचां नाम्ना हि निश्चितं । श्री अजितदेवसूरिभ्यो वृतियुक्त मलंकृतम्
अतः १ नम्बर की गडबडी ज्ञात होती हैं पर संभव है कि नम्बर दिया है और आर्य सुहस्तीसूरिजी का ९ वां नम्बर देना चाहिये नम्बर लगाया है अतः दीपिकाकार ने उसके संशोधित स्वरूप वहां 1 धर लिख दिया है ।
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॥ २ ॥ युग्मम् ।
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इति प्रशस्ति
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* इस प्रशस्ति से सुधर्मास्वामि से महेश्वरसूरि ५६ में पट्टधर सिद्ध होते हैं और प्रस्तुत पट्टावली के अनुसार महश्वरसूरि का नम्बर ५५ वां आता है ।
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पावली में आर्य स्थूलिभद्र का ८ वां उसे न दे कर सुप्रतिबद्ध का ९ वां नम्बर की वृद्धि कर ५६ वे पट्ट
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जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास " के पृष्ठ ५८५ में महेश्वर सूरिजी को " महावीरथी ६० मी पाटे " लिखा है अतः उक्त गणना में ४ नम्बरों की और वृद्धि होती है पर देशाई महोदय को उपलब्ध प्रमाण को पुनः देखना आवश्यक है ।
शताब्दि ग्रंथ ]
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