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श्री. कृष्णलाल वर्मा को सजा दिलाने में राज्य को मदद करो। गृहस्थ का धर्म है न्याय की रक्षा करना । न्याय के लिए कुटुंब, परिवार, मित्र, सम्पत्ति सब का त्याग करो। यदि जरूरत पड़े तो न्याय की बलि वेदी पर सब को होम दो, निज प्राणों का भी बलिदान करो पर न्याय की जय होने दो, न्याय को विजयी बनाने में अपनी मानसिक और कायिक सभी शक्तियों का पूणे उपयोग करो।”
जोरावरसिंह बोले: “देव न्याय तो राज्य के पक्ष में ही है। तो क्या आप यह उपदेश देते हैं कि मैं मित्रद्रोह करूँ, मित्र के प्राण लूँ, मित्र के कुटुंब को विपत्ति में डालें ?"
गुरुदेव गंभीर होकर बोले: “ मैं सिर्फ इतना कहता हूँ कि न्याय का पक्ष लो। इस से अधिक मैं कुछ नहीं कहता ।” ।
थोड़ी देर ठहरकर गुरुदेव ने पूछाः "तुम नियमित सामायिक या प्रतिक्रमण करते हो?" जोरावरसिंह बोलेः " नहीं।"
" तब आज से नियमित सामायिक किया करो। सामायिक में आत्म-विचार को ही मुख्यतया स्थान दो । आत्मविचार हमेशा तुम को ठीक रास्ते पर चलायगा।"
जोरावरसिंहजी ने जबतक घर पर रहेंगे तबतक नियमित सामायिक करने का नियम लिया । फिर गुरुदेव चले गये।
राजा सिंहासन पर बिराजमान थे। दर्बारी लोग चुपचाप सिर झुकाए बैठे थे। राजा बोले: " तो तुम में से कोई ठिकाने 'क' के जागीरदार को पकड़ लाने का साहस नहीं कर सकते ?" . किसी ने सिर न उठाया । राजा बोलेः " तो क्या मैं यह समझ लूँ कि तुम सब निकम्मे हो, मेरे राज्य में कोई भी ऐसा बहादुर नहीं है जो जाकर जागीरदार को पकड़ लावे।"
चारों तरफ सन्नाटा छाया रहा । उसी समय दर्वाजे के बाहर से आवाज आईखम्मा घणी अन्नदाता, हुजूर का सेवक जोरावरसिंह अभी जिंदा है । जबतक उसके देह में प्राण है, रियासत में कोई द्रोही न रहने पायगा। जैसे एक गुफा में एक ही शेर रह सकता है वैसे ही रियासत में हुजूर का तपतेज ही रहेगा। कोई विद्रोही फलने-फूलने न पायगा।"
____ " आओ जोरावरसिंह, आओ। तुम्हारे समान राजभक्त वीर को पाकर मेरी रियासत धन्य हुई है ।" कहते हुए राजा ने उठकर, हाथ जोड़े, नतमस्तक खड़े हुए जोरानरसिंह को शाबाशी दी।
शताब्दि अंथ]
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