Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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पंजाब के जैन भंडरों का महत्त्व
(९) उत्तराधगच्छ-गत अढ़ाई तीन सौ बरसों में इस गच्छ का पंजाब में बहुत जोर रहा है, परंतु अब कई विद्वानों से पूछने पर इस का कुछ पत्ता नहीं चला । जैन तत्त्वादर्श के पृष्ठ ५८३ पर केवल इतना उल्लेख है कि यह लुंपक मत का एक प्रसिद्ध गच्छ है। पंजाब के भंडारों से इस गच्छ की गुरुपरम्परा मिल गई है, जो इस प्रकार है
उत्तराधगच्छ*
जटमल्ल
पूज्यतपाचाउजी
राऊऋषि
मोहनऋषि (सं०१७१५)+
रामाऋषि
जादमऋषि
मंगलऋषि (सं० १७९९, १८३९)+ बीरूऋषि (सं० १८२०, १८२५ )+ सहजूऋषि (सं० १८५०, १८७५)+
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उदयऋषि माणकऋषि
मोतीऋषि (सं० १८७४, १९२६)+
(सं० १८८१ + उत्तमऋषिः (सं० १९१०, १९१३)
(१०) सचित्र प्रतियां-यद्यपि जैनमत वैराग्य तथा निवृत्ति परक धर्म है तथापि इस ने कलाकौशल्य को यथायोग्य अपनाया है । न केवल मूर्ति तथा मन्दिर निर्माण में
* इस गच्छ का मुख्य उपाश्रय अंबाला शहर में था । * माणक ऋषि जबरदस्त लिपिकार थे । इन के लिखे हुए बीसियों ग्रन्थ भंडारों में विद्यमान हैं ।
: सं० १९३५ में यतिपना छोड़ कर ये श्रीमद्विजयानन्दसूरि के शिष्य बन गये और इन का नाम श्री उद्योतविजय रखा गया । (देखिये तत्त्वनिर्णयप्रासाद-चरित्र भाग, पृ. ६१) ___ + इन संवतों में लिखे हुए ग्रन्थ मिलते है।
[ श्री आत्मारामजी
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