________________
श्री. अगरचंद नाहटा
(५७) श्री आमदेवसूरिx पाटि ५७ संवत १६३४ स्वर्ग (५८) श्री शान्तिसूरि पाटि ५८ संवत १६६१ स्वर्ग (५९) श्री जस्योदेवसूरि पाटि ५९ संवत १६९२ स्वर्ग (६०) श्री नन्नसूरि पाटि ६० संवत १७१८ स्वर्ग (६१) श्री विद्यमान भट्टा(रक) श्री उजोअणसूरि+ पाटि ६१ संवत १६८७ वाचकपदं संवत १७२८ जेष्ट सुदि १२ वार शनि दिने सूरिपदं विद्यमान विजयराज्ये।
__ (सं० १७३४ स्वर्ग ) लेखन प्रशस्ति-संवत १७२८ वरषे श्री शालिवाहनराज्ये शाके १५९३ प्रवर्तमाने श्री भाद्रपद मास शुभ शुक्लपक्षे नवमी ९ दिने वार शनि दिने श्रीमत् पल्लिकीयगच्छे भट्टा. श्री शांतिसूरि तत्पट्टे भ. श्री श्री ७ जस्योदेवसूरि संताने श्री श्री उपाध्याय श्री महेन्द्रसागर तत्शिष्य मु. श्री जयसागर शिष्य चेला परमसागर वाचनार्थे श्री गुरां री पट्टावली लिख्यतं ॥ श्री ॥
विशेष ज्ञातव्य-श्वेताम्बर समाज में दो तीर्थंकरों की परम्परा अद्यावधि चली आती है। १ पार्श्वनाथ, २ महावीर । भगवान महावीर देव की विद्यमानता में प्रभु पार्श्वनाथजी के सन्तानीय केशी गणधर की विद्यमानता के प्रमाण श्वे. मूल आगमो में पाये जाते हैं। यद्यपि केशी के अतिरिक्त और भी कई मुनिराज पार्श्वनाथ सन्तानीय उस समय विद्यमान थे और उनका उल्लेख अंग सूत्रों में कई जगह प्राप्त है तथापि केशी मुख्य और प्रभावक थे। उनकी परंपरा आज तक भी चली आरही है इस लिये वे यहां उल्लेखनीय है । इस परम्परा के ६ठे पट्टधर रत्नप्रभसूरिजी नामक आचार्य बहुत प्रभावशाली हो गये है। कहा जाता है कि ओशीया ( उपकेश ) नगरी में वीर निर्वाण संवत् ७० के बाद १८०००० क्षत्रियपुत्रों को उपदेश देकर जैन धर्मी आप ने ही बनाये, और वहां से उपकेश नामक वंश चला* जो आज भी ओसवाल ज्ञाति के नाम से सर्वत्र सुप्रसिद्ध है । इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये उनका नाम सदा चिरस्मरणीय रहेगा। अस्तु
___x इनका ( आमदेवरि छंद ) १ छंद भी उक्त गुटके में है पर वह अशुद्ध होने से प्रक शित नहीं किया गया । ___+ प्रस्तुत पट्टावली की प्रति जिस गुटके से नकल की गई है वह गुटकाकार प्रति सं. १७१७ से लेकर सं. १७३४ के मिगसर तक भिन्न २ समय में कई लेखकोंद्वारा लिखा गया है अतः शेष लेखक ने उजोअणसूरि का स्वर्ग सं. १७३४ का लिखा है । इनके बाद पट्टधर कौनसे २ आचार्य हए इसके लिये प्रमाणों का अभाव है।
* हिमवंत थेरावली का अनुवाद ( वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना ), एवं विशेष ज्ञातव्य जैनजाति महोदय में देखें।
शतान्दि ग्रंथ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org