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श्रीविजयानंदावतार
( लेखक - श्रीयुत शेठ कनैयालालजी जैन, " जैन कवि " आनरेरी मैजिस्ट्रेट, कस्तला )
( चालः -- राधेश्याम की रामायण )
इक प्रकृत मधुर गुंजार हुआ, ' आनंद ', ' विजय ', ' आनंद ', विजय
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आनंद विजय ' अवतार हुआ, आनंद ! विजय !! आनंद ! विजय !!
वन में, हिमगिरि में सागर में,
जल, स्थल, नभ और चराचर में;
चहुँधा यह रव - झंकार हुआ, आनंद ! विजय !! आनंद ! विजय !! ॥ १ ॥
जब थी अघ से अभिव्याप्त मही, अति पाप ताप से तप्त मही;
उर में तब मधुर पुकार हुआ, आनंद ! विजय !! आनंद ! विजय !! ॥ २ ॥
पथ में तम-तोम भयंकर था, जब जीवन केवल कंकर था;
सहसाऽलोकित संसार हुआ, आनंद ! विजय !! आनंद ! विजय !! ॥ ३ ॥
संसृति में प्रभु ने जन्म लिया, इंद्रादिक ने जय - नाद किया;
निर्बल मद, मोह विकार हुआ, आनंद ! विजय !! आनंद ! विजय !! ॥ ४ ॥
*"आनंद", " विजय " से यहां ' अहो ! आनंद ' अहो विजय !! से
मतलब है ।
ग्रंथ
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