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[उपकेशगच्छीय मुनि श्री ज्ञानसुन्दर ]
स्वर्गस्थ पूज्याचार्य भगवान् का सर्वांश जीवन तो वही भाग्यशाली कह सक्ते है कि जिन्हों ने आचार्यदेव का दर्शन कर अपने नेत्रों को पवित्र, उपदेश श्रवण कर कानों को कृतार्थ
और चरणों का स्पर्श कर शरीर को सार्थक बनाया हों; क्यों कि परोक्ष की बजाय प्रत्यक्ष और अनुमानकी अपेक्षा अनुभव बलवान होता हैं। फिर भी बड़े बड़े विद्वानों के सामने मेरा कहना तो मात्र सूर्य के सामने दीपक देखाना सदृश केवल हाँसी का पात्र के सिवाय ओर हो ही क्या सक्ता है ? तथापि आन्तरिक भक्ति एवं श्रद्धा की विजली इतनी जबर्दस्त होती हैं कि जिसकों मनुष्य तो क्या पर पशु-पक्षी भी रोक नहीं सक्ते हैं । अतएव अपनी तोतली भाषा से चू-चू कर अपने मनोगत भावों को प्रदर्शित करके कृतार्थ बन ही जाते है । इस हालत में मैं पूज्य गुरुदेव की शताब्दि के समय मेरे हृदय के उमंग को कैसे रोक सक्ता हूँ ? कदापि नहीं । अतएव पूज्याचार्य भगवान् की पवित्र सेवा में फूटे-तूटे दो शब्दोंद्वारा विनयभक्तिपूर्वक श्रद्धाञ्जलि अर्पण करना मैं मेरा खास कर्त्तव्य समझता हूँ।
आज स्वर्गस्थाचार्य प्रवर का स्थूल देह भले हमारे सामने न हो पर आपश्री का हम लोगों पर किया हुआ असिम अलौकिक उपकाररूपी सूक्ष्म देह हमारे हृदयकमल को प्रफुल्लित अवश्य कर रहा हैं इतना ही नहीं पर आपश्री के नाम मात्र से मन आह्लाद और नेत्रों की पुतलियों नृत्य करने लग जाती है।
पूज्यवर ! आपने जैसे वीर क्षत्री कुल में (वि. सं. १८९३) अवतार धारण कर वीरता का परिचय दिया वैसे ही धर्मवीर हो कर अपनी वीरता को सार्थक किया । आपश्री
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