Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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[ इस छोटे से लेख में गंभीर विचारणा है। अनेकान्तवाद एक जटिल विषय है ऐसी मान्यता चली आती है परंतु उसकी व्यवहार्यता इतनी बड़ी है कि हर वर्तन में उसका पालन हो सकता है। लेखक महाशय इस विषय पर एक महान् लेख लिख कर प्रकाश डालें ऐसी आशा रखता हूं-संपादक ]
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धर्म और दर्शन ये जुदे जुदे विषय हैं परन्तु प्रागैतिहासिक काल से ही इन दोनों का आश्चर्यजनक सम्बन्ध चला आता है । प्रत्येक धर्म अपना एक दर्शन रखता रहा है। उस दर्शन का प्रभाव उस धर्म पर आशातीतरूप में पड़ा है। दर्शन को देखकर उस धर्म को समझने में सुभीता हुआ है इतना ही नहीं किन्तु उस समय दर्शन को समझे बिना उस धर्म का समझना अति कठिन था ।
जैन धर्म का भी दर्शन है और उसमें एक ऐसी विशेषता है जो जैन धर्म को बहुत ऊंचा बना देती है।
आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर है - कि नहीं ? आदि समस्याओं को सुलझाने की कोशिश सभी
लेखकदर्शनों ने की है और जैन दर्शन ने भी इस विषय में दुनियाँ पंडित श्री दरबारीलाल 'सत्यभक्त' को बहुत कुछ दिया है, अधिकार के साथ दिया है और साहित्यरत्न न्यायतीर्थ, बम्बई अपने समय के अनुसार वैज्ञानिक दृष्टि को काम में लाकर दिया है । परन्तु जैन दर्शन की इतनी ही विशेषता बतलाना विशेषता शब्द के मूल्य को कम कर देना है। जैन दर्शन ने जो दार्शनिक विचार दुनिया के साम्हने रक्खे वे कितने गंभीर और तथ्यपूर्ण हैं यह प्रश्न ही जुदा है । इस परीक्षा में अगर जैन दर्शन अधिक से अधिक नम्बरों में पास भी हो जाय तो भी यह उसकी बड़ी विशेषता नहीं कही जा सकती। उसकी बड़ी विशेषता है अनेकान्त, जो केवल दार्शनिक सत्य ही नहीं है बल्कि धार्मिक सत्य भी है । इस अनेकान्त का दूसरा नाम स्याद्वाद है। जैन दर्शन में इस का स्थान इतना महत्त्वपूर्ण है कि जैन दर्शन को स्याद्वाद दर्शन या अनेकान्त दर्शन भी कहते हैं।
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[ श्री आत्मारामजी
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