Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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न्यायतंत्रशतपत्रभानवे, लोकलोचनसुधाञ्जनत्विषे । पापशैलशतकोटिमूर्तये, सज्जनाय सततं नमो नमः ॥
जैन धर्म के विषय में अनेक भारतीय विद्वानों ने अपने उच्चावच अभिप्रायों का प्रदर्शन किया है । बहुतों ने इस पर मननीय विवेचनात्मक निबन्ध लिखे, अनेकों ने समालोचनात्मक संग्रहणीय लेख प्रकाशित किये और कईएक ने प्रतिवादरूप में इसकी कड़ी से कड़ी आलोचना भी की है । तात्पर्य कि हरएक विद्वान ने अपनी २ दृष्टि के अनुसार इसकी पर्यालोचना की, परन्तु इन में कुछ ऐसे विद्वान भी हैं कि जिन्हों ने साम्प्रदायिक व्यामोह के वशीभूत होकर प्रतिवाद करने से पूर्व इसके जैन धर्म के स्वरूप को समझने की लेशमात्र भी आवश्यकता समझी हो ऐसा प्रतीत नहीं होता ! किन्तु विपरीत इसके उन्हों ने सभ्य संसार के समक्ष, इसका-जैन धर्म का-विकृत अथवा विपरीत स्वरूप रखकर उसके प्रतिवाद में अपनी लेखिनी को जितना भी अधिक से अधिक कठोर बनाया जा सकता था उतना बनाया,
और इसकी-जैन धर्म की-शान में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया कि जिस में भाषासमिति को बिलकुल स्थान* नहीं !
* इसके लिये देखो, स्वामि दयानन्द सरस्वतीकृत “ सत्यार्थ प्रकाश" का बारवां समुल्लास जिसका कुछ नमूना यह हैं---
(१) “ सब से वैरविरोध, निन्दा, ईर्षा आदि दुष्ट कर्मरूप सागर में डुबानेवाला जैन मार्ग है। जैसे जैनी लोग सब के निन्दक हैं वैसा कोई भी दूसरे मतवाला महानिन्दक और अधर्मी न होगा।"
[सत्या० प्र० पृ० २७७ ] : १५०:.
[ श्री आत्मारामजी
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