Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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श्री. हंसराज शास्त्री प्रथम सं-अकेला न भोजन करते और न स्त्री को भोगते ऐसा दिगम्बर मोक्ष को पाते हैं, यह बड़ा भेद श्वेताम्बरों के साथ कहा है।
द्वितीय सं-वे अकेले भोजन नहीं करते, स्त्री-संभोग नहीं करते-मुक्त समझे जाते हैं इत्यादि श्वेताम्बरों से बहुत भेद है* [पृ. ८३ ]
प्रिय पाठकगण ! अब इन दोनों सज्जनों के सम्बन्ध में यदि हम कहें तो क्या कहें ? क्योंकि एक सिंह हैं और दूसरे सूरि हैं ! एक के प्रचण्ड नखों से और दूसरे की प्रचण्ड किरणों से हम भयभीत हैं ! भगवान् ऐसे दार्शनिक पंडितराजों से संस्कृत साहित्य को बचाये, नहीं तो न मालूम भविष्य में ये लोग क्या करपावें !! .
तृतीय श्रेणि-के विद्वानों के सम्बन्ध में हमे अधिक कुछ नहीं कहना क्यों कि वे हमारे गुणानुराग दृष्टि से श्रद्धेय हैं और प्रतिभासम्पन्न हैं, परन्तु एक बात जो उनके लेखों में खटकती है वह यह है कि जहांतक हमने जैन ग्रन्थों का अनुशीलन किया है वहां तक हमारी तो यही धारणा है कि जैन सिद्धान्त में जीव के मुक्त और संसारी यह दो ही भेद स्वीकार
* पाठकगण इन उपर्युक्त श्लोकों का स्वामी दयानन्दसरस्वतीकृत अर्थ को भी पढ़ लेवे । “ सत्यार्थ प्रकाश” सन १८८४ के पृष्ठ ४७७ पर तीसरे श्लोक का अर्थ करते हुए आप लिखते हैं---" दिगम्बरों का श्वेताम्बरों के साथ इतना ही भेद है कि दिगम्बर लोग स्त्री-संसर्ग नहीं करते और श्वेताम्बर करते हैं । इत्यादि बातों से मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।" इत्यादि
परन्तु जैनों की तर्फ से जब इसपर आन्दोलन उठा तो आगामी संस्करणों में इस पाठको आर्यप्रतिनिधि सभा ने बदला दिया अर्थात् संसर्ग के स्थान में “ अपवर्ग” और “ करते" के स्थान में “कहते" कर दिया । क्या हि अच्छा होता यदि सारा ही अर्थ शुद्ध कर दिया जाता क्यों कि “ इत्यादि बातों से मोक्ष को प्राप्त होते हैं " इस अर्थ का सूचन श्लोक में कोई भी पद नहीं है। वास्तव में यह स्वामीजी की दर्शन सम्बन्धी अनभिज्ञता का सजीव चित्र है। एक और बात देखिये । उक्त पहले और दूसरे श्लोक का अर्थ करते हुए स्वामीजी ने श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों अतिरिक्त एक तीसरा भेद भी उक्त श्लोकों में से निकाल लिया जिसका कि आजतक संसार के किसी भी जैन जैनेतर विद्वान को पता नहीं था ! आप लिखते है- और भिक्षा देनेवाला गृहस्थ जब भोजन करचूके उसके पश्चात् भोजन करें वे जिनर्षि अर्थात् तीसरे प्रकार के साधु होते है ।” ( समु. १२, पृ. २८८, सं. १९९२ )
वास्तव में यह सब कुछ साम्प्रदायिक व्यामोह और जैन सम्बन्धी ज्ञान न होने का विषम परिणाम है।
शताब्दि ग्रंथ ]
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