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श्री. हंसराज शास्त्री इसके अतिरिक्त कुछ अनुवादक महाशय हैं कि जिनकी अनधिकार चेष्टा को देखते हुए हंसी भी आती है और मन में उनके प्रति तिरस्कार भी उत्पन्न होता है । एवं कुछ विद्वान ऐसे भी हैं कि जिनके व्यापक पांडित्य पर अभिमान किया जा सकता है परन्तु जैन सिद्धान्त के विषय में इनकी भी कुछ सहज-सी भूल देखने में आती है ! इसप्रकार जैन धर्म विषयक भ्रममूलक विचार रखनेवाले विद्वान् तीन श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं ।
प्रथम श्रेणि-में, वर्तमान आर्यसमाज के जन्मदाता स्वामि दयानन्द सरस्वती और शंकरविजय के प्रणेता स्वामि आनन्दगिरिजी का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इन में स्वामि दयानन्द सरस्वतीजी के सम्बन्ध में तो इस समय हमारा इतना ही वक्तव्य है कि वे संस्कृत साहित्य में असाधारण गति रखते हुए भी जैन दर्शन से बिलकुल अपरिचित थे। उन्हों ने जैन दर्शन का कुछ अभ्यास किया हो ऐसा उनके लेखों से प्रतीत नहीं होता। आप के " सत्यार्थ प्रकाश" में एक स्थान पर लिखते हैं---
__“अबजो बौद्ध और जैनी लोग सप्तभंगी और स्याद्वाद मानते हैं सो यह है" इत्यादि । [समु. १२, पृ. २६४, संवत् १९९२ का संस्करण ] विद्वानों के समक्ष स्वामीजी के इस लेख की कितनी कीमत है इस बात का विचार पाठक स्वयं करें और उनको जैन सिद्धान्तों का कितना ज्ञान था इसका अन्दाज़ा भी ऊपर के लेख से सहज ही में लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यहां पर और कुछ न कहते हुए इस सम्बन्ध का विस्तृत विवेचन देखने के लिये हम अपनी *" स्वामि दयानन्द और जैन धर्म " नाम की पुस्तक का अवलोकन करने के लिये पाठकों से साग्रह अनुरोध करते हैं । तथा स्वामि आनन्दगिरिजी ने शांकरविजय में जैन धर्म का जो बिभत्स चित्र बैंचा उसकी तर्फ भी पाठक ज़रा ध्यान देवें । पूज्य शंकराचार्य के दिग्विजय के प्रसंग में कईएक मतों के अग्रगामियों को शंकरस्वामी के पास लाया जाता है, और वे शंकरस्वामी से पराजित होकर उन की शाखा में आ जाते हैं । इसी प्रकार--"xएक
(२) “ जैनियों के समान कठोर, भ्रान्त, द्वेषी, निन्दक, भूला हुआ दूसरे मतवाले कोई भी न होंगे।"
[सत्या० प्र० पृ० २७८ ] (३) " और पाखंडों का मूल भी जैन मत है।"
सत्या० प्र० पृ० २८३
"विक्रम सं० १९९२ का छपा हुआ" * मिलने का पत्ता--श्री आत्मानन्द जैन सभा-अम्बाला सिटी ।
x ततो जैन: कौपिनमात्रधारो मलदिग्धांग: मदा अयोऽर्हत् इति मुहुर्मुहुरुरुचरन् शून्यांकः शून्यपुंडवृतविन्दुपुंडः शिष्यसमेतः पिशाचवत् सर्वजनभयंकरः समागत्य सकललोकगुरुमिदमुवाच--भो स्वामिन् ! मदीयं मतमत्यन्तं सुगम श्रूयताम . जिनदेवः सर्वेषां किल मुक्तिदः जीतिपदवाच्यस्य जीवस्य नेति पदेन
शताब्दि ग्रंथ ।
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