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[ रचयिता-श्री रामकुमार जैन " स्नातक" श्री आत्मा० जैन गुरुकुल-गुजरांवाला]
जयति जय विजयानन्द महान ॥ टेक० ॥
धरणीतल पर छाया था जब गहरा तम-अज्ञान । प्रकटित हुवे उजाला करने तब तुम सूर्य समान ॥ जय० ॥१॥ प्रतिनर में लख कोई दूषण हुई प्रकृति थी म्लान । निर्मित आत्माराम किया तब सर्व गुणों की खान ॥ जय० ॥ २ ॥ धन्य जनक जननी वे जग में धन है जन्मस्थान । जिनकी गोदी में खेला अवतारी पुरुष-प्रधान ॥ जय० ॥३॥ बालवयस में चन्द्रकला सम पाकर वृद्धि महान । पढ़े शास्त्र, व्याकरण, धन्य साहित्य और विज्ञान ॥ जय० ॥ ४ ॥ लख पाखण्ड धर्म के मग में हुवे बड़े हैरान । सत्य धर्म का किया केसरी बाना धार विधान ॥ जय० ॥५॥ सुप्त जाति जाग्रत करने का लिया भीष्म प्रणठान । खाली ढांचे में समाज के पुंके तुमने प्राण ॥ जय० ॥६॥ रुद्ध मार्ग करसकी न तेरा बाधाएं बलवान । ज्यों ज्यों स्वर्ण तपा भट्ठी में उज्जवल हुवा महान ॥ जय० ॥ ७॥
[ श्री आत्मारामजी
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