Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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जैन धर्म की विशालता जैसे दीक्षित साधु को अजैन होने पर भी श्वेताम्बर जैन साधु समान व्यवहार का हक देते हैं वैसा ही समान हक दीक्षित जैन गृहस्थों को देना उचित है । जबतक वर्तमान के जैनो नए जैन गृहस्थों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार का मार्ग नहीं बोलेंगे तबतक वे सम्यरज्ञान के प्रचार में विन्नकारक होते हुए अतएव कर्म का बंध करेंगे व धर्म के प्रभावक न बनकर अप्रभावक रहेंगे। जैन धर्म सर्व ही विवेकी मानवों को प्रिय हो सकता है। हम जैनों को उसका प्रचार करना चाहिये, उदारता के साथ जैन धर्म का दान करना चाहिये । जैनाचार्य व साधुगण इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये अपना पूर्ण उत्तरदायित्व रखते हैं।
जैन धर्म प्रसार के लिये निम्नलिखित दो साधन करने योग्य है--
( १ ) जागी हुई दुनिया की सर्व भाषाओ में जैनधर्म के असल सिद्धांतों को बतानेवाली पुस्तके प्रकाश करना ।
(२) जागी हुई दुनिया के सर्व प्रदेशों में विद्वान उपदेशकों को तय्यार करके भेजना और यत्र तत्र जैन मंदिर व मठ व जैनशिक्षालय स्थापित करना ।
५० व ६० करोड़ बौद्धों के भीतर जैनधर्म का प्रकाश बड़ा ही सुगमता से हो सक्ता है। बौद्धों का पाली साहित्य निर्वाण व निर्वाण का मार्ग जैन सिद्धांत के समान बताता है ।
देखिये, पाली मज्मिमनिकायअरियपरियेसन सुत्त वॉ. १, सू. २६ इं. प. १६२-१६३ पालिटेकस्ट सोसाइटि-लंडन ।
" कतमा च भिक्खववे अरिया परियेसनाः--रुधभिक्स्वववे एकञ्चो मुत्तना जाति धम्मो समानो जाति धम्मे आदि नवं विदित्वा अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निक्कामं परियेसति; अतना जरा धम्मो समानो जराधम्मे आदिनवं विदित्वा अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निवानं परियेसति
भावार्थ-आर्यों की खोज क्या है-कोई आर्य अपने जन्म को दोषपूर्ण व जरापने वा दोषपूर्ण देखकर अजात ( जन्मरहित uncrented ) अजर ( जरा रहित अविनाशी indestructible ) सर्वोत्तम मंगलमय निर्वाण की खोज करता है ।।
यही निर्वाण का स्वरूप जैनों को भी मान्य है । निर्वाण नाशवंत नही, न वह नया जन्मता है अर्थात् निर्वाण सदा से है-प्रकाशमान हो जाता है-शुद्धात्मा या निर्वाण दोनों एक ही बात है।
[ श्री आत्मारामजी
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