Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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और विश्वशति
[लेखकः-श्री दरबारीलाल जैन 'कोठिया ' न्यायतीर्थ, बनारस.]
प्रत्येक जीवधारी (प्राणी) स्वभावतः सुख-शांति का अभिलाषी है। जितने वह प्रयत्न करता है वे सब अपने पूर्ण सुखी होने के लिये ही करता है। यह कोई भी नहीं चाहता कि मेरी मृत्यु हो, मुझे दुःख प्राप्त हो, मेरी इष्ट सामग्री का विच्छेद हो, प्रत्युत प्राणी मात्र यही चाहता है कि मेरी मौत कभी न हो, सदा जीता रहूँ, दुःख कभी न हो, इष्ट सामग्री हमेशा एक-सी बनी रहे । इस से सहज में यह सिद्ध हो जाता है कि सुख और शांति आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप है। पर इस सिद्धान्त का जितना दुरुपयोग प्रकृति की सृष्टि का विवेकशील सुन्दर प्राणी "मानव" कर सकता है उतना वे मूक-अविवेकी-पशुपक्षी नहीं । वस्तुतः मनुष्य में इतर प्राणियों की अपेक्षा अधिक विवेकशक्ति एवं श्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं । अखिल विश्व में शांति साम्राज्य स्थापित करने की भी शक्ति इस को प्रकृतिप्रदत्त है, किन्तु आश्चर्य यह है कि इतना विवेकशील एवं मानवोचित गुणों से सम्पन्न होता हुआ मानवीय देह को लेकर जितने बर्बरतापूर्ण कृत्यों के करने में यह समर्थ होता है उतना जगत् का इतर प्राणी नहीं। यह प्रत्यक्ष है कि जब मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को बढ़ा लेता है, विलासिताओं एवं क्षुद्र स्वार्थ वासनाओं के आधीन हो जाता है तब उनकी पूर्ति के लिये निर्बलों के ऊपर कठोर बलप्रयोग करने को उद्यत हो जाता है-अन्याय एवं अत्याचार करने पर उतारू हो जाता है। ऐसी हालत में मानवजगत् में भीषण क्रान्ति की आग धधक उठती है, युद्ध का बाज़ार गरम हो जाता है, जगत् की शांति भंग हो जाती है-मनुष्य यह सब अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिये ही करता है ।
अगर संसार का मानव समाज अहिंसा तत्त्व को जान ले, उसके यथार्थ स्वरूप को पहिचान ले तो जगत् की शांति भंग होने का अवसर ही प्राप्त न हो और न निर्बलों पर अत्याचार करने का मौका मिले । आज हम इसी अहिंसा तत्त्व पर विचार करेंगे।
[ श्री आत्मारामजी
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