Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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श्री. रामकुमार जैन भक्ति व्याज वश दिया गया यदि, किया हलाहल पान । दाता का उपकार चुकाया दे अमृत का दान ॥ जय० ॥८॥ कायरता का पाश नाश कर किया हमें बलवान् । अन्तर के पट खोल दिये सिखला कर सच्चा ज्ञान ॥ जय० ॥९॥ एक छत्र नायक के गुरुवर जैन संघ के प्राण । यश से पूरित हुवा पंचनद, गुजेर, राजस्थान ॥ जय० ॥ १० ॥ प्राण भले ही जायें किन्तु न जाये सच्ची आन । धन्य धन्य अनुरक्ति तुम्हारी धन्य धन्य बलिदान ॥ जय० ॥११॥ जर्मन, अमरीका तक फैला तेरा कीर्ति वितान । विद्वत्ता पर मुग्ध हो गये हॉर्नल से विद्वान् ॥ जय० ॥ १२ ॥ नभचुम्बी देवालय जो हैं नगर नगर निर्माण । तेरे सत्कार्यों के ये हैं साक्षीरूप प्रमाण
॥ जय० ॥ १३ ॥ गुरुकुल, आश्रम, स्कूल, सभाएं संस्थाएं सहमान ।। प्रकट कर रही हैं पृथ्वी पर तेरी आला शान ॥ जय० ॥ १४ ॥ नभमें तारक निर्मित लिपि में अङ्कित तव यशगान । जिसके पठन हेतु रुकता है निशि में चन्द्र विमान ॥ जय० ॥ १५ ॥ कितने हृदय-मन्दिरों में नित होता तव आह्वान । कितने हृदयों की वेदी हित बने तुम्ही भगवान ॥ जय० ॥ १६ ॥ यह शताब्दि-दिन गुरु तुम्हारा, करे जाति कल्याण । "राम" युगों तक अमर रहे यह तेरा कीर्ति-निशान ॥जय०॥ १७ ॥
शताब्दि ग्रंथ
.: १३१ :
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