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श्री. कृष्णलाल वर्मा यम के दूत से सिपाही दौड़े गये और नवकार मंत्र का जाप करते हुए जोरावरसिंह को उठा लाये।
पद्मासन लगा हुआ था, आँखें बंद थीं और हाथ में नवकारवाली के मनके फिर रहे थे । जोरावरसिंह का यह हाल देखकर राजा कुछ विचार में पड़ा।
दुष्ट दरबारी बोलेः " देखा हुजूर, यहाँ पहुँचकर भी इसका घमंड कायम है । कैसा बगला भगत हो रहा है ?"
राजा ने पूछाः “ जोरावरसिंह, बोलो पन्द्रह दिनतक क्यों हाज़िर नहीं हुए थे ?"
पंचपरमेष्ठी के ध्यान में मग्न मोहमायात्यागी वीर क्या जवाब देता ? उसने संसार का खयाल छोड़ दिया था, कुटुंब का खयाल छोड़ दिया था, सुख दुःख का खयाल छोड़ दिया था। अपने शरीर तक का खयाल छोड़ दिया था। वह उस समय उस अवस्था में था जिस अवस्था के लिए एक कवि ने लिखा है:
यह तन अपावन अशुचि है, संसार सकल असार । ये विषय भोग नसायँगे, इस भाति सोच विचार ॥ तप विरचि श्री मुनिजन रहें, सब त्याग परिग्रह भीर। वे साधु मेरे मन बसो, मेरी हरौ पातक पीर ॥ जो काच कंचन सम गिने, अरि मित्र एक सरूप । निन्दा बड़ाई सारखी, वनखंड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवनमरण में, नाखुशी ना दिलगीर ।
वे साधु मेरे मन बसौ, मेरी हरौ पातक पीर ॥ ऐसी परम उत्कृष्ट भावदशा को प्राप्त जोरावरसिंह पृथ्वी के एक टुकड़े के मालिक मोहमाया में लिप्त क्रुद्ध प्राणी के सवाल का क्या जवाब देता ?
मनुष्य जब किसी से अपने सवाल का जवाब न पाता है तो बड़ा नाराज़ होता है । दंड देनेवाला जब किसी को दंड देना चाहता है और दंड पानेवाला अगर रोता चिल्लाता नहीं है, हाय हाय नहीं करता है तो दंडदाता की हिंसावृत्ति और भी उग्र हो उठती है।
राजा ने हुक्म दियाः " इस दुष्ट को इसी वक्त हाथी के पैरों तले कुचल दो और इस के अभिमान का उचित दंड दो।"
शतान्दि प्रथ]
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