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श्री. कृष्णलाल वर्मा
जोरावरसिंह ने राजा की आन फिराई । किले की रक्षा का प्रबंध किया और जागीरदार के बालबच्चों को अपने साथ ले गया । उनके लिए एक अलहदा हवेली में रहने का प्रबंध कर दिया।
राजा ने जोरावरसिंह का बड़ा आदर किया । इनाम इकराम बख्शे । बड़ी जागीरी दी। कहा जाता है कि उनके वंशज आज भी जागीरी के कुछ अंश का उपभोग कर रहे हैं।
राजा अब जोरावरसिंह को बहुत मानने लगे। इससे दूसरे दरबारी उससे जलने लगे । जगत में प्रसिद्ध है कि
. औरनको उत्कर्ष जग, देखी सकत नहीं नीच । जोरावरसिंह की रुचि अब धीरे धीरे दुनिया की तरफ से हटने लगी। अब वे दोनों वख्त सामायिक करते थे और अपने समय का बहुत बड़ा भाग आत्मचिंतन में बिताते थे। इसी गरज से वे राजा के पास बहुत कम आते-जाते थे। धीरे धीरे वे संसार से और उस की झंझटों से इतने दूर रहने लगे कि दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक, दरबार में जाने का उन्हें खयाल ही न आता था । दुश्मनों ने जोरावरसिंह की इस वैराग्य दशा से लाभ उठाया और एक दिन राजा से कहाः
एक-हुजूर, अब तो जोरावरसिंह बहुत घमंडी हो गया है। दूसरा-बेशक, वह हुजूर की भी परवाह नहीं करता।
तीसरा-हाँ, यही बात हैं। इसी लिए तो पन्द्रह पन्द्रह दिन तक मुजरा करने भी नहीं आता।
चौथा-हुजूर गुस्ताखी माफ हो, पर वह तो कहता है कि राजा मेरी भुजाओं के बल पर गद्दी पर बैठे हुए हैं। अगर मैं चाहुँ तो घडी भर में सब कुछ उलटपुलट कर डालूँ। . राजा-नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । क्या जोरावरसिंह के समान बहादुर और राजभक्त आदमी कभी ऐसा कह सकता है ?
एक-हुजूर को विश्वास न होगा यह तो हम पहले ही से जानते थे।
दूसरा--फिर भी हम लोगों ने अपना फर्ज अदा किया है। शताब्दि ग्रंथ ]
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