Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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एक जेन वोर पुराने जमाने से एक कहावत चली आती है किः
राजा, जोगी, अगन, जल, इनकी उलटी रीत ।
डरते रहिए परसराम, ओछी पाले प्रीत ॥ और भी कहा है:
जोगी किस का गोठिया, राजा किस का मित ।
वेश्या किसकी इसतरी, तीनों मित कुमित ॥ वही हुआ । जो जोरावरसिंह एक बार राजा की दाहिनी भुजा के समान था उसीको आज राजा ने नष्ट कर देने का हुक्म दे दिया । दुष्ट खुश हुए । भलों की आँखें दुःख और लज्जा से झुक गईं।
जोरावरसिंह उसी तरह स्वस्थ और शांत बैठा था-जिस तरह घर में बैठा था । उस धर्मवीर के कानों में राजा की आज्ञा न पहुँची । अगर पहुँची तो उसके हृदय को स्पर्श न कर सकी।
जोरावरसिंह चौक में पहुँचाया गया । मस्त हाथी खोलकर लाया गया। हाथी सामने आया । उसने ढूंढ उँचे नीचे की मानों वह ध्यानमग्न धीर को नमस्कार कर रहा है। महावत ने हाथी के अंकुश लगाई । हाथी चिंघाड़कर आगे बढ़ा । ध्यान में बैठे हुए जोरावरसिंह पर रखने के लिए उसने पैर उठाया, मगर क्या सोच कर पैर पीछे खींच लिया और एक चिंघाड की । मानों उसने जोरावरसिंह को चितावनी दी: "धर्मवीर सामने से भाग जा।"
जोरावरसिंह को न भागते देख और महावत की फिर से अंकुश खा, हाथी उन्मत्त होकर चिंघाड़ा । उसने जोरावरसिंह को सँढ में पकड़ कर इधर उधर घुमाया फिर आकाश में उछाल दिया । जोरावरसिंह गेंद की तरह उपर की तरफ और फिर से आकर धम से जमीन पर गिरा । धमाके की आवाज के साथ ही · अर्हत् ' शब्द सुनाई दिया । महावत ने फिर अंकुश मारा, हाथी आगे बढ़ा । उसने जोरावरसिंह के बदन पर पैर रखा । जोरावरसिंह के मुख से फिर शब्द निकला 'अहं' अभी 'त' शब्द निकलने भी न पाया था कि • कडड़' आवाज़ आई । जोरावरसिंह की हड्डी पसली चूरचूर हो गई । वह धर्मवीर, वह महावीर का सच्चा अनुयायी, वह मोहमाया को जीतनेवाला सच्चा जैन ' अहंत ' का जाप करता स्वर्गलोक को चला गया और जैनियों को सिखा गया कि
वीर की तरह जीओ और वीर की तरह मरो।
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[श्री आत्मारामजी
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