Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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एक जैन वीर
(४) जोरावरसिंह ने पाँच हजार फौज के साथ ठिकाने 'क' का किला जा घेरा । किले में रसद का जाना बंद कर दिया और जागीरदार को कहलायाः “आप मेरे मित्र हैं। इसलिए मैं आप से आग्रह करता हूँ कि आप अपनी विद्रोहात्मक भावना छोड़कर महाराज के शरण में चले आयें । मैं आप से वादा करता हूँ कि आप के सभी पिछले अपराध महाराज से अर्जकर माफ करा दूंगा।"
जागीरदार ने उत्तर में कहलायाः " जबतक राजपूत के हाथ में तलवार होती है वह किसी की परवाह नहीं करता । शरण में आने और माफी मांगने की बातें वह सोचता है जिसे अपनी आन से जान अधिक प्यारी होती है । मैं जान दूंगा मगर आन न दूंगा। __मैं जानता हूँ कि, तुम वीर हो और साथ ही रणपटु व चालबाज भी हो, इसलिए संभव है कि तुम्हारी बड़ी सेना और चालबाजी से मैं परास्त हो जाऊँ और रणस्थल में जान गँवाऊँ । अगर ऐसा हो तो मैं अपने कुटुंब की सन्मानरक्षा का भार तुम्हें सौंपता हूँ। आशा है मित्रता के नाते तुम मेरे कुटुंब की आबरू पर आँच न आने दोगे।"
जोरावरसिंह ने यह बात स्वीकार की । कई दिनों तक जागीरदार किले से बाहर न निकला । अन्त में जब खाना-पीना समाप्त हुआ तब वह अपने चार पाँच सौ बहादुरों को लेकर बाहर निकला और रियासत की सेना पर टूट पड़ा। घमासान युद्ध हुआ । जागीरदार के पाँच सौ आदमी पाँच हजार वीरों के साथ कबतक लड़ते ? आखिरकार सभी तलवार चलाते चलाते हमेशा के लिए रणभूमि में सो गये । जागीरदार भी अनेकों को तलवार के घाट उतार कर वीरगति पाया ।
जोरावरसिंह ने जागीरदार का उसकी आबरू के अनुसार अग्निसंस्कार कराया । जागीरदार पत्नी भी पति के साथ अग्निप्रवेश कर हमेशा के लिए धराधामको छोड़ गई।
जब सिपाही लोग जागीरदार के किले में लूट मचाने का प्रयत्न करने लगे तो जोरावरसिंह ने हुक्म दियाः “ अगर कोई किसी तरह की लूट खसोट करेगा तो वह जान से जायगा । हम विद्रोही को दंड देने आये थे, उसकी प्रजा को लूटने नहीं । लूटना लुटेरों का काम है, वीरों का नहीं।"
इस आज्ञा से अनेक छोटे २ ऑफिसर और सिपाही नाराज हुए, मगर लाचार होकर उन्हें हुक्म मानना पड़ा।
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[श्री आत्मारामजी
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