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प्राचीन मथुरां में जैनधर्म का वैभव
और डेढ़ हजार के करीब पत्थर की मूर्तियां मिल चुकी हैं। प्राचीन भारत में मथुरा का स्तूप जैन धर्म का सब से बड़ा शिल्प तीर्थ था। यहां के भव्य देव -- प्रासाद, उनके सुन्दर तोरण, वेदिकास्तम्भ, मूर्धन्य या उष्णीष पत्थर, उत्फुल्ल कमलों से सज्जित सूची, उत्कीर्ण आयागपट्ट तथा अन्य शिलापट्ट, सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं, स्तूप - पूजा का चित्रण करनेवाले स्तम्भतोरण आदि अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के कारण आज भी भारतीय कला के गौरव समझे जाते हैं । सिंहक नामक वणिक के पुत्र सिंहनादिक ने जिस आयागपट्ट की स्थापना की थी वह अविकल रूप में आज भी लखनऊ के संग्रहालय में सुशोभित है । चित्रण - सौष्ठव और मान-सामञ्जस्य में इसकी तुलना करनेवाला एक भी शिल्प का उदाहरण इस देश में नहीं है । बीच के चतुरस्रस्थान में चार नन्दिपदों से घिरे हुए मध्यवर्ती कुण्डल में समाधिमुद्रा में पद्मासन से भगवान् अर्हत् विराजमान हैं। ऊपर नीचे अष्टमांगलिक चिन्ह और पार्श्वभागों में दो स्तम्भ उत्कीर्ण हैं, दक्षिण स्तम्भ पर चक्र सुशोभित है और वाम पर एक गजेन्द्र । आयागपट्ट के चारों कोनों में चार चतुर्दल कमल हैं । इस आयागपट्ट में जो भाव व्यक्त किए गए हैं उनकी अध्यात्म-व्यंजना अत्यन्त गम्भीर है । इसी प्रकार माथुरक लवदास की भार्या का आयागपट्ट जिस में षोडश अरेवाले चक्र का दुर्धर्ष प्रवर्तन चित्रित है, मथुराशिल्प का मनोहर प्रतिनिधि है । फल्गुयश नर्तक की भार्या शिवयशा के सुन्दर आयागपट्ट को भी हम नहीं भूल पाते ।
कंकाली टीले के अनन्त वेदिका स्तम्भों और सूची - दलों की सजावट का वर्णन करने के लिए तो कवि की प्रतिभा चाहिए। आभूषण - संभारों से सन्नतांगी रमणियों के सुखमय जीवन का अमर वाचन एकबार ही इन स्तम्भों के दर्शन से सामने आ जाता है । अशोक, बकुल, आम्र और चम्पक के उद्यानों में पुष्पभंजिका क्रीडा में प्रसक्त, कन्दुक, खड्गादि नृत्यों के अभिनय में प्रवीण, स्नान और प्रसाधन में संलग्न पौरांगनाओं को देखकर कौन मुग्ध हुए बिना रह सकता है ? भक्तिभाव से पूजा के लिए पुष्पमालाओं का उपहार लानेवाले उपासक वृन्दों की शोभा और भी निराली हैं । सुपर्ण और किन्नर सदृश देव - योनियां भी पूजा के इन श्रद्धामय कृत्यों में बराबर भाग लेती हुई दीखाई गई हैं । मथुरा के इस शिल्प की महिमा केवल भावगम्य है ।
श्रावक-श्राविकाएँ तथा उनके आचार्य
मथुरा के शिलालेखों से मिली हुई सामग्री से पता चलता है स्त्रियों को बहुत ही सम्मानित स्थान प्राप्त था । अधिकांश दान और
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कि जैन समाज में प्रतिमा - प्रस्थापना
[ श्री आत्मारामजी
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