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श्री अचलदास लक्ष्मीचंदजी जैन कोई सम्बंध नहीं, चाहे जाति, समाज और धर्म भाड़में पड़े, हमें तो चेलों की संख्या बढ़ानी है । किसी तरह लोगों को चरित्र देकर सन्मार्ग पर लाना हैं। ठीक है, चारित्र देना उत्तम कार्य है किन्तु यह नहीं भूल जाना चाहिये की हमारा धर्म, हमारी इज्जत किन पर है ! भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की थी, उन्हों ने चारों को आपस में भले में बुरे में धर्म-बन्धन में बांध दिया था । यदि एक दल जिसे चतुर्विध संघ को चलाने का कार्य सौंपा गया है जो उसमें श्रेष्ठ माना जाता है, दूसरों की चिन्ता न कर श्रावक श्राविकाओं की उन्नति, अवनति, ज्ञान, अज्ञान में सहायक न हो तो यह बात कहाँ तक उचित कही जा सकती है ?
ठीक है, साधु होना अति उत्तम हैं किन्तु सर्व साधारण की रक्षा, धर्म की रक्षा, भी इससे कुछ कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं । यदि हमारे बोझ के कारण हमारे भय के कारण जनता ने हमारा साथ दिया भी तो उससे यह न समझना चाहिये की जो कुछ हम कर रहे है वह ठीक है । आज जैन समाज की शिक्षा को देखिए, फूट को देखिए, भांति भांति के अपव्ययों को देखिए और जाति की दुर्दशा पर चार ऑसू बहाइये । यदि आप में कुछ भी मनुष्यत्व है तो इसे सोचिये, इसके निराकरण का ऊपाय सोचिये ।
विद्या जीवन है अविद्या मृत्यू है, विद्या प्रकाश है अविद्या अन्धकार है। यदि अन्धकार से प्रकाश में आना है, मृत्यु से जीवन की ओर बढ़ना है तो यह हमारे लिये आवश्यक होगा कि विद्या, शिक्षा ग्रहण करें । उस विद्या का अर्थ केवल धार्मिक विद्या ही नहीं प्रत्युत लोक और परलोक दोनों के साधन के लिये दोनों प्रकार की विद्या पढ़नी होगी
और उसके लिये आवश्यकता है हमारी जातीय शिक्षणशालाओं की। यदि जातीय शिक्षणशालाएं न होंगीं तो फिर जैनत्व का नाम बचना भी कठिन हो जायगा । हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो हमें वर्तमान जीवन की दौर में सशक्त बनावें । दूसरे राष्ट्रों, जातियों और समाजों के सन्मुख खड़ा होने की शक्ति दिलावे। और इसके साथ ही साथ हमारी संस्कृति-हमारे धर्म का ज्ञान करावे ।
दुःख है और महान दुःख है कि आज जैन समाज में ऐसी संस्थाएं इनीगिनी ही है, सो भी कुछ महात्माओं के तनतोड़ परिश्रम के फलस्वरूप । हमें महात्माओं-अपने पूज्यों से तो ऐसी शिक्षा की आशा होनी चाहिये जो हमारा शिर उँचा करावे, किन्तु दुःख है कि आज समाज का पूज्य वर्ग इस आवश्यकता का अनुभव न कर, न जाने किस नींद में पड़ा हुआ है ? उन्हों ने न जाने कौन-सी बूटी पी रखी है कि उन्हें उलटी ही सूझती है !
शताब्दि ग्रंथ ]
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